अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 31
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
अवि॒र्वै नाम॑ दे॒वत॒र्तेना॑स्ते॒ परी॑वृता। तस्या॑ रू॒पेणे॒मे वृ॒क्षा हरि॑ता॒ हरि॑तस्रजः ॥
स्वर सहित पद पाठअवि॑: । वै । नाम॑ । दे॒वता॑ । ऋ॒तेन॑ । आ॒स्ते॒ । परि॑ऽवृता । तस्या॑: । रू॒पेण॑ । इ॒मे । वृ॒क्षा: । हरि॑ता: । हरि॑तऽस्रज: ॥८.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अविर्वै नाम देवतर्तेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः ॥
स्वर रहित पद पाठअवि: । वै । नाम । देवता । ऋतेन । आस्ते । परिऽवृता । तस्या: । रूपेण । इमे । वृक्षा: । हरिता: । हरितऽस्रज: ॥८.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 31
विषय - अवि
पदार्थ -
१. वे प्रभु बै-निश्चय से (अवि: नाम देवता) = [अव रक्षणे] 'रक्षक' इस नामवाली देवता हैं। प्रभु सबके रक्षक हैं, अत: उनका नाम 'अवि' है। ये प्रभु ऋतेन परीवृता आस्ते-ऋत से परिवृत हुए-हुए विद्यमान हैं। प्रभु में अनृत सम्भव नहीं। वे सत्यस्वरूप हैं-सत्य ही हैं। २. तस्याः -उस ऋत से परिवृत "अवि' नामवाली देवता के रूपेण-सौन्दर्य, प्रकाश [Beauty, elegance, grace] से इमे वृक्षा:-ये वृक्ष हरिता:-हरे-भरे हैं और हरितस्त्रज:-हरे-भरे पत्तों की मालाओंवाले हैं। वृक्षों को पत्तों द्वारा सौन्दर्य वे प्रभु ही प्राप्त करा रहे हैं।
भावार्थ -
प्रभु सबके रक्षक और सत्यस्वरूप हैं। उसी की कृपा से ये वृक्ष हरे-भरे हैं।
इस भाष्य को एडिट करें