अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 27
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - भुरिग्बृहती
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
त्वं स्त्री त्वं पुमा॑नसि॒ त्वं कु॑मा॒र उ॒त वा॑ कुमा॒री। त्वं जी॒र्णो द॒ण्डेन॑ वञ्चसि॒ त्वं जा॒तो भ॑वसि वि॒श्वतो॑मुखः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । स्त्री । त्वम् । पुमा॑न् । अ॒सि॒ । त्वम् । कु॒मा॒र: । उ॒त । वा॒ । कु॒मा॒री । त्वम् । जी॒र्ण: । द॒ण्डेन॑ । व॒ञ्च॒सि॒ । त्वम् । जा॒त: । भ॒व॒सि॒ । वि॒श्वत॑:ऽमुख: ॥८.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । स्त्री । त्वम् । पुमान् । असि । त्वम् । कुमार: । उत । वा । कुमारी । त्वम् । जीर्ण: । दण्डेन । वञ्चसि । त्वम् । जात: । भवसि । विश्वत:ऽमुख: ॥८.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 27
विषय - विविधरूपों में
पदार्थ -
१. हे जीवात्मन् ! (त्वम्) = तू इस शरीर-गृह में निवास करता हुआ (स्त्री) = स्त्री होता है, (त्वं पुमान् असि) = तू ही पुमान् होता है। (त्वं कुमार:) = तू कुमार होता है, (उत वा) = अथवा (कुमारी) = कुमारी के रूप में होता है। इसप्रकार कभी नर व कभी मादा के रूप में जन्म लेता है। २. (त्वम्) = तू ही जीर्ण: जीर्णशक्तिवाला होकर (दण्डेन वञ्चसि) = दण्ड के सहारे गतिवाला होता है। (त्वम्) = तु (जात:) = उत्पन्न हुआ-हुआ-शरीर को धारण किये हुए-(विश्वतोमुखः भवसि) = सब ओर मुखवाला होता है। बहिर्मुखी इन्द्रियों से चारों ओर दूर-दूर तक देखनेवाला व विषयों को भोगनेवाला बनता
भावार्थ -
जीव शरीर में निवास करता हुआ 'पुरुष, स्त्री, कुमार व वृद्ध' के रूपों में होता है। शरीर में रहता हुआ यह चारों ओर दूर-दूर तक देखनेवाला व विषयों का उपभोग करनेवाला बनता है।
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