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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 32
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    अन्ति॒ सन्तं॒ न ज॑हा॒त्यन्ति॒ सन्तं॒ न प॑श्यति। दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॒ न म॑मार॒ न जी॑र्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्ति॑ । सन्त॑म् । न । ज॒हा॒ति॒ । अन्ति॑ । सन्त॑म् । न । प॒श्य॒ति॒ । दे॒वस्य॑ । प॒श्य॒ । काव्य॑म् । न । म॒मा॒र॒ । न । जी॒र्य॒ति॒ ॥८.३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति। देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्ति । सन्तम् । न । जहाति । अन्ति । सन्तम् । न । पश्यति । देवस्य । पश्य । काव्यम् । न । ममार । न । जीर्यति ॥८.३२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 32

    पदार्थ -

    १. (अन्ति सन्तम्) = समीप होते हुए उस प्रभु को (न जहाति) = जीव कभी छोड़ नहीं पाता प्रभु से दूर होना उसके लिए सम्भव नहीं, साथ ही (अन्ति सन्तम्) = समीप होते हुए उस प्रभु को (न पश्यति) = यह देखता भी नहीं। प्रभु से दूर होना भी सम्भव नहीं और समीप होते हुए भी उसका देखना सम्भव नहीं। २. हे जीव! तु (देवस्य) = उस प्रकाशमय प्रभु के (काव्यम्) = इस वेदज्ञानरूप काव्य को पश्य देख। यह ज्ञान (न ममार) = न विनष्ट होता है, (न जीर्यति) = न ही जीर्ण होता है। यह ज्ञान सनातन होता हुआ भी सदा नवीन है। यह कभी किसी समय में अनुपयुक्त out of date नहीं होता।

    भावार्थ -

    प्रभु हमारे समीप हैं, परन्तु हम प्रभु को देख नहीं पाते। प्रभु का यह वेदरूप काव्य अजरामर है। हम इस काव्य को देखने का व्रत लें।

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