अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 42
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
नि॒वेश॑नः सं॒गम॑नो॒ वसू॑नां दे॒व इ॑व सवि॒ता स॒त्यध॑र्मा। इन्द्रो॒ न त॑स्थौ सम॒रे धना॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒ऽवेश॑न: । स॒म्ऽगम॑न: । वसू॑नाम् । दे॒व:ऽइ॑व । स॒वि॒ता । स॒त्यऽध॑र्मा । इन्द्र॑: । न । त॒स्थौ॒ । स॒म्ऽअ॒रे । धना॑नाम् ॥८.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
निवेशनः संगमनो वसूनां देव इव सविता सत्यधर्मा। इन्द्रो न तस्थौ समरे धनानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठनिऽवेशन: । सम्ऽगमन: । वसूनाम् । देव:ऽइव । सविता । सत्यऽधर्मा । इन्द्र: । न । तस्थौ । सम्ऽअरे । धनानाम् ॥८.४२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 42
विषय - निवेशन:-सत्यधर्मा
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में वर्णित साधक (निवेशनः) = सबको उत्तम निवेश प्राप्त करानेवाला-सबका आश्रय बनता है। (वसनां संगमन:) = निवास के लिए आवश्यक धनों का अपने में मेल करनेवाला होता है। यह (सविता देवः इव) = उस प्रेरक प्रकाशमय प्रभु की भाँति होता है-सदा सबको उत्तम प्रेरणा देनेवाला होता है, (सत्यधर्मा) = सत्य को धारण करता है। २. (धनानाम्) = सब धनों का (समरे) = [सम्+अर-ऋगतौ] संगमन होने पर (इन्द्रः न) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की भाँति तस्थौ-स्थित होता है।
भावार्थ -
प्रभु का उपासक सबका आश्रय, धनों का आधार, उत्तम प्रेरणा देनेवाला, सत्य का धारण करनेवाला बनता है। ऐश्वर्यों का संगमन होने पर यह परमैश्वर्यशाली प्रभु का ही छोटा रूप प्रतीत होने लगता है।
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