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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 12
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - पुरोबृहती त्रिष्टुब्गर्भार्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    अ॑न॒न्तं वित॑तं पुरु॒त्रान॒न्तमन्त॑वच्चा॒ सम॑न्ते। ते ना॑कपा॒लश्च॑रति विचि॒न्वन्वि॒द्वान्भू॒तमु॒त भव्य॑मस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒न्तम् । विऽत॑तम् । पु॒रु॒ऽत्रा । अ॒न॒न्तम् । अन्त॑ऽवत् । च॒ । सम॑न्ते॒ इति॑ सम्ऽअ॑न्ते । ते इति॑ । ना॒क॒ऽपा॒ल: । च॒र॒ति॒ । वि॒ऽचि॒न्वन् । वि॒द्वान् । भू॒तम् । उ॒त । भव्य॑म् । अ॒स्य॒ ॥८.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनन्तं विततं पुरुत्रानन्तमन्तवच्चा समन्ते। ते नाकपालश्चरति विचिन्वन्विद्वान्भूतमुत भव्यमस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनन्तम् । विऽततम् । पुरुऽत्रा । अनन्तम् । अन्तऽवत् । च । समन्ते इति सम्ऽअन्ते । ते इति । नाकऽपाल: । चरति । विऽचिन्वन् । विद्वान् । भूतम् । उत । भव्यम् । अस्य ॥८.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 12

    पदार्थ -

    १. (अनन्तम्) = अनन्त-सीमारहित-सा-परम कारण 'प्रकृति' नामक पदार्थ ही (पुरुत्रा विततम्) = नाना रूपों में कार्यपदार्थों में फैला हुआ है। (अनन्तम्) = वह अन्तरहित-सा कारणपदार्थ, (च अन्तवत्) = और अन्तवाला सीमायुक्त कार्यपदार्थ-ये दोनों (सम् अन्ते) = एक-दूसरे की सीमा हैं-कार्यकारणभाव के रूप से एक-दूसरे से मिले हुए हैं। २. (अस्य) = इस विश्व के (भूतम्) = अतीत में उत्पन्न हुए-हुए (उत) = और (भव्यम्) = भविष्य में उत्पन्न होनेवाले को (विद्वान्) = जाननेवाला वह (नाकपाल:) = मोक्षधाम का भी पालक प्रभु (ते विचिन्वन्) = उन अनन्त और अन्तवाले कारणात्मक व कार्यात्मक जगत् को विविक्तरूप से जानता हुआ (चरति) = सर्वत्र गतिवाला है-और प्रलय के समय इस सबको अपने अन्दर ले-लेनेवाला [खा जानेवाला] है।

    भावार्थ -

    अनन्त-सी प्रकृति इन अन्तवाले कार्य-पदार्थों को जन्म देती है। ये दोनों कारण कार्य परस्पर सम्बद्ध सीमावाले हैं-जुड़े हुए हैं। वे भूत-भव्य के ज्ञाता प्रभु इनका विवेक करते हुए सर्वत्र गतिवाले हो रहे हैं।

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