अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 40
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
अ॒प्स्वासीन्मात॒रिश्वा॒ प्रवि॑ष्टः॒ प्रवि॑ष्टा दे॒वाः स॑लि॒लान्या॑सन्। बृ॒हन्ह॑ तस्थौ॒ रज॑सो वि॒मानः॒ पव॑मानो ह॒रित॒ आ वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्ऽसु । आ॒सी॒त् । मा॒त॒रिश्वा॑ । प्रऽवि॑ष्ट: । प्रऽवि॑ष्टा: । दे॒वा: । स॒लि॒लानि॑ । आ॒स॒न् । बृ॒हन् । ह॒ । त॒स्थौ॒ । रज॑स: । वि॒ऽमान॑: । पव॑मान: । ह॒रित॑: । आ । वि॒वे॒श॒ ॥८.४०॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्स्वासीन्मातरिश्वा प्रविष्टः प्रविष्टा देवाः सलिलान्यासन्। बृहन्ह तस्थौ रजसो विमानः पवमानो हरित आ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठअप्ऽसु । आसीत् । मातरिश्वा । प्रऽविष्ट: । प्रऽविष्टा: । देवा: । सलिलानि । आसन् । बृहन् । ह । तस्थौ । रजस: । विऽमान: । पवमान: । हरित: । आ । विवेश ॥८.४०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 40
विषय - 'बृहन् पवमानः' प्रभु
पदार्थ -
१. प्रलय के समय सब कार्यजगत् नष्ट होकर कारणरूप में चला जाता है, यह कारणरूप प्रकृति ही आपः' कहलाती है-सर्वत्र एक समान [साम्यावस्था] फैला हुआ तत्त्व। यही 'सलिल' कहलाती है [सत् लीनम् अस्मिन्]-जिसमें यह सब दृश्य [सत्] जगत् लीन हो जाता है। (मातरिश्वा) = वह (सूत्रात्मा अप्सु) = इस एक-समान फैले हुए परमाणुरूप प्रकृतितत्व में (प्रविष्टः आसीत्) = प्रविष्ट हुआ-हुआ था। (देवा:) = सूर्य आदि सब देव भी (सलिलानि) = इन सलिलों में ही-कारणभूत परमाणुओं में ही (प्रविष्टाः आसन्) = प्रविष्ट हुए-हुए थे। २. उस समय (ह) = निश्चय से (बृहन्) = महान् प्रभु (ह) = ही (रजस: विमान:) = सब लोकों का वि-मान-कारणरूप में अलग-अलग करनेवाला-[निर्माण से विपरीत विमान करनेवाला] (तस्थौ) = स्थित था। यह (पवमानः) = पवित्रीकरणवाला [सब ब्रह्माण्ड का सफाया कर देनेवाला] प्रभु (हरित:) = सब दिशाओं में (आविवेश) = प्रविष्ट हो रहा था। उस समय चारों ओर प्रभु-ही-प्रभु थे-अन्य कोई सत्ता प्रतीत न होती थी।
भावार्थ -
प्रलय के समय प्रभु कारणरूप व्यापक परमाणुओं में प्रविष्ट थे। सूर्यादि ये सब देव भी कारणरूप परमाणुओं में चले गये थे। एक प्रभु ही इस ब्रह्माण्ड का विमान [Disman tling] करते हुए स्थित थे। वे सफाया कर देनेवाले प्रभु ही सब ओर विद्यमान थे।
इस भाष्य को एडिट करें