अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
रुहो॑ रुरोह॒ रोहि॑त॒ आ रु॑रोह॒ गर्भो॒ जनी॑नां ज॒नुषा॑मु॒पस्थ॑म्। ताभिः॒ संर॑ब्ध॒मन्व॑विन्द॒न्षडु॒र्वीर्गा॒तुं प्र॒पश्य॑न्नि॒ह रा॒ष्ट्रमाहाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरुह॑: । रु॒रो॒ह॒ । रोहि॑त: । आ । रु॒रो॒ह॒ । गर्भ॑: । जनी॑नाम् । ज॒नुषा॑म् । उ॒पऽस्थ॑म् । ताभि॑: । सम्ऽर॑ब्धम् । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒न् । षट् । उ॒र्वी: । गा॒तुम् । प्र॒ऽपश्य॑न् । इ॒ह । रा॒ष्ट्रम् । आ । अ॒हा॒: ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
रुहो रुरोह रोहित आ रुरोह गर्भो जनीनां जनुषामुपस्थम्। ताभिः संरब्धमन्वविन्दन्षडुर्वीर्गातुं प्रपश्यन्निह राष्ट्रमाहाः ॥
स्वर रहित पद पाठरुह: । रुरोह । रोहित: । आ । रुरोह । गर्भ: । जनीनाम् । जनुषाम् । उपऽस्थम् । ताभि: । सम्ऽरब्धम् । अनु । अविन्दन् । षट् । उर्वी: । गातुम् । प्रऽपश्यन् । इह । राष्ट्रम् । आ । अहा: ॥१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
विषय - ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
(रोहितः) सूर्य जिस प्रकार (रुहः रुरोह) उच्च उच्च स्थानों को क्रम से चढ़ता चला जाता है, उसी प्रकार उदय को प्राप्त होता हुआ राजा भी (रुहः आरुरोह) उच्च उच्च स्थानों और अधिकारों को प्राप्त करता है। (गर्भः) गर्भ जिस प्रकार (जनुषाम्) प्राणियों के (जनीनां) माताओं के (उपस्थम्) गोद भाग में (आ रुरोह) क्रम से रोपित होकर वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार (गर्भः) राज्य-शक्ति को अपने हाथ में ग्रहण करने में समर्थ राजा (जनुषाम्) प्राणियों या प्रजाजनों के बीच (उपस्थम्) उच्चतम स्थान को (आ रुरोह) चढ़ कर प्राप्त करता है। (ताभिः) उन प्रजाओं के प्रयत्नों से (संरब्धम्) बनाये गये राष्ट्र को (अनु अविन्दन्) उनके अनुकूलता में ही प्राप्त करता हुआ (षड् उर्वीः) छहों विशाल दिशाओं में (गातुम्) अपने गमन मार्ग को (प्रपश्यन्) देखता हुआ (राष्ट्रम् आ अहाः) समस्त राष्ट्र को अपने वश में कर लेता है। रोहण प्रकरण देखो यजु० [अ० १०। १०-१४ ]
अध्यात्म पक्ष में—(रोहितः रुहः रुरोह) रोहित, सर्वोत्पादक परमात्मा आरोहणशील सब जीवों के ऊपर विराजमान है। (जनीनाम् गर्भः इव) माताओं गर्भ के समान (जनुषाम् उपस्थम् आरुरोह) वह समस्त प्राणियों के भीतर विराजमान है। (नाभिः संरब्धम् अनु अविन्दन् षट् उर्वीः) उन समस्त प्राणियों द्वारा जाना जाकर ही वह समस्त छहों दिशाओं में व्यापक दिखाई देता है। वह (गातुं प्रपश्यन् इह राष्ट्र मा अहाः) ज्ञान सर्वस्व का दर्शन कराता हुआ इस जगत् में राष्ट्र, अपने तेज को प्रदान करता है। या इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘रोह, रोहं’ (द्वि०) ‘प्रजाभिवृद्धिंयजतु’ (तृ०) ‘ताभिः समृद्धो अविदत्’ इति तै० आ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें