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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 50
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    स॒त्ये अ॒न्यः स॒माहि॑तो॒ऽप्स्वन्यः समि॑ध्यते। ब्रह्मे॑द्धाव॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्ये । अ॒न्य: । स॒म्ऽआहि॑त: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्य: । सम् । इ॒ध्य॒ते॒ । ब्रह्म॑ऽइध्दौ । अ॒ग्नी इति॑ । ई॒जा॒ते॒ इति॑ । रोहि॑तस्य । स्व॒:ऽविद॑: ॥१.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्ये अन्यः समाहितोऽप्स्वन्यः समिध्यते। ब्रह्मेद्धावग्नी ईजाते रोहितस्य स्वर्विदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्ये । अन्य: । सम्ऽआहित: । अप्ऽसु । अन्य: । सम् । इध्यते । ब्रह्मऽइध्दौ । अग्नी इति । ईजाते इति । रोहितस्य । स्व:ऽविद: ॥१.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 50

    भावार्थ -
    हिम और घ्रंस इन दोनों में (अन्यः) एक (सत्ये) सत्य, ज्ञान, न्याय व्यवस्था में (सम् आहितः) अति सावधान होकर बिराजता है और (अन्य) दूसरा ‘वरुण’ (अप्सु) प्रजाओं में दुष्टों का तापकारी होने से अग्नि के समान (सम् इध्यते) अच्छी प्रकार प्रदीप्त होता है। वे दोनों ही (ब्रह्मेद्धौ) ब्रह्म-वेद और वेदज्ञ ब्राह्मणों द्वारा प्रदीप्त अग्नि के समान तेजस्वी होकर (स्वर्विदः) स्वर्ग के समान सुखप्रद आत्मा या राष्ट्र को लाभ करने वाले (रोहितस्य) सर्वोच्चपदारूढ़ उज्ज्वल रक्तवर्ण तेज को धारण करने वाले योगी और राजा के योग और राष्ट्र यज्ञ को (ईजाते) सम्पादन करते हैं। अध्यात्म में—प्राण और अपान, इनमें से एक सत्य ज्ञान प्राप्त करता दूसरा कर्मेन्द्रियों में युक्त रहता है। वे दोनों इस देह में ब्रह्म सुख तक पहुँचने वाले योगी के लिये ब्रह्माग्नि से दीप्त होकर यज्ञ सम्पादन करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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