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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 50
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    46

    स॒त्ये अ॒न्यः स॒माहि॑तो॒ऽप्स्वन्यः समि॑ध्यते। ब्रह्मे॑द्धाव॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्ये । अ॒न्य: । स॒म्ऽआहि॑त: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्य: । सम् । इ॒ध्य॒ते॒ । ब्रह्म॑ऽइध्दौ । अ॒ग्नी इति॑ । ई॒जा॒ते॒ इति॑ । रोहि॑तस्य । स्व॒:ऽविद॑: ॥१.५०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्ये अन्यः समाहितोऽप्स्वन्यः समिध्यते। ब्रह्मेद्धावग्नी ईजाते रोहितस्य स्वर्विदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्ये । अन्य: । सम्ऽआहित: । अप्ऽसु । अन्य: । सम् । इध्यते । ब्रह्मऽइध्दौ । अग्नी इति । ईजाते इति । रोहितस्य । स्व:ऽविद: ॥१.५०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 50
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अन्यः) एक [परमाणुरूप पदार्थ] (सत्ये) सत्य [नित्यपन] में (समाहितः) सर्वथा ठहरा हुआ है, (अन्यः) दूसरा [कार्यरूप पदार्थ] (अप्सु) प्रजाओं [जीवधारियों] के बीच (सम् इध्यते) यथावत् प्रकाशित होता है। (ब्रह्मेद्धौ) धन के साथ प्रकाशित किये गये मन्त्र ४९ ॥५०॥

    भावार्थ

    संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं, एक नित्य परमाणुरूप और दूसरे अनित्य कार्यरूप। यह सब ईश्वर की आज्ञा से संसार का उपकार करते हैं ॥५०॥

    टिप्पणी

    ५०−(सत्ये) नित्यत्वे (अन्यः) एकः परमाणुरूपः पदार्थः (समाहितः) यथावत् स्थापितः (अप्सु) प्रजासु (अन्यः) कार्यरूपः पदार्थः (समिध्यते) यथाविधि दीप्यते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४९ ॥

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    विषय

    [सत्ये+अप्सु], ज्ञान+कर्म

    पदार्थ

    १. (अन्यः) = सूर्यरूप एक अग्नि (सत्ये समाहित:) = सत्य में समाहित हुआ है। उदय होता हुआ सूर्य सब अन्धकार का विनाश करता है। मस्तिष्क में भी उदय होता हुआ ज्ञान का सूर्य सब अज्ञान-अन्धकार का विनाशक बनता है। (अन्यः) = दूसरा चन्द्ररूप अग्नि (अप्सु समिध्यते) = कर्मों में समिद्ध होता है। यज्ञादि सब कर्म'प्रतिपदा, अष्टमी, एकादशी, पूर्णिमा व अमावास्या' आदि चन्द्र-तिथियों को देखकर ही सम्पन्न होते हैं। 'चदि आहादे' आहादक चन्द्र भी कर्मों के होने पर उदित होता है। आलस्य में आनन्द की समाप्ति हो जाती है। २. ये दोनों (ब्रम्होद्धौ अग्नी) = ब्रह्म द्वारा समिद्ध किये गये सुर्य-चन्द्ररूप अग्रि (स्वर्विदः) = ज्ञान व सुख को प्राप्त करानेवाले (रोहितस्य) = तेजस्वी व सदावृद्ध प्रभु के (ईजाते) = सृष्टियज्ञ को चलाते हैं। हमारे जीवनों में भी ज्ञान असत्य को नष्ट करता है तथा कर्म आनन्द के चन्द्र का उदय करते हैं। इसप्रकार ज्ञान व कर्मों द्वारा जीवन-यज्ञ का प्रवर्तन होता है।

    भावार्थ

    हमारे जीवनों में ज्ञान के सूर्य का उदय होकर सब असत्य का विनाश हो जाए, साथ ही कर्मों में तत्पर हुए-हुए हम आनन्द के चन्द्र को हृदयान्तरिक्ष में उदित कर सकें। ये यज्ञ व कर्म इस जीवनयज्ञ के प्रवर्तक हों।

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    भाषार्थ

    (अन्यः) एक अर्थात् सूर्य (सत्ये) सत्य ब्रह्म में, (समाहितः) स्थित है, (अन्यः) दूसरा अर्थात् चन्द्रमा (अप्सु) अन्तरिक्ष में (समिध्यते) प्रदीप्त होता है, चमकता है। (ब्रह्मेद्धौ) वस्तुतः ब्रह्म द्वारा प्रदीप्त (अग्नी) सूर्य और चन्द्रमा रूपी दो अग्नियां (स्वर्विदः, रोहितस्य) स्वर्विद् रोहित के (ईजाते) संसार यज्ञ को रचा रही हैं।

    टिप्पणी

    [सत्ये= सत्यं ज्ञानमानन्दं ब्रह्म। सूर्य ब्रह्माश्रित हैं, यथा, "यत्राधि सूरऽउदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम।" (यजु० ३२।७), कस्मै "क" अर्थात् प्रजापति के आधार में सूर्य उदित हुआ प्रभावान् होता है। अप्सु = आपः अन्तरिक्षनाम (निघं० १।३)। अथवा शीत होने के कारण "अप्सु" अर्थात् जलों में चन्द्रमा का समिन्धन कहा है। स्वर्विदः रोहितस्य (मन्त्र ४७)]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हिम और घ्रंस इन दोनों में (अन्यः) एक (सत्ये) सत्य, ज्ञान, न्याय व्यवस्था में (सम् आहितः) अति सावधान होकर बिराजता है और (अन्य) दूसरा ‘वरुण’ (अप्सु) प्रजाओं में दुष्टों का तापकारी होने से अग्नि के समान (सम् इध्यते) अच्छी प्रकार प्रदीप्त होता है। वे दोनों ही (ब्रह्मेद्धौ) ब्रह्म-वेद और वेदज्ञ ब्राह्मणों द्वारा प्रदीप्त अग्नि के समान तेजस्वी होकर (स्वर्विदः) स्वर्ग के समान सुखप्रद आत्मा या राष्ट्र को लाभ करने वाले (रोहितस्य) सर्वोच्चपदारूढ़ उज्ज्वल रक्तवर्ण तेज को धारण करने वाले योगी और राजा के योग और राष्ट्र यज्ञ को (ईजाते) सम्पादन करते हैं। अध्यात्म में—प्राण और अपान, इनमें से एक सत्य ज्ञान प्राप्त करता दूसरा कर्मेन्द्रियों में युक्त रहता है। वे दोनों इस देह में ब्रह्म सुख तक पहुँचने वाले योगी के लिये ब्रह्माग्नि से दीप्त होकर यज्ञ सम्पादन करते हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘समाहितः सत्ये अद्मि समाहितः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    One fire of the two is placed in truth and commitment with knowledge and faith, the other is placed in the waters, dynamics of will and action, and these two fires lighted, raised and continued by Brahma with Brahma, carry on the creative yajna of Rohita, Lord and Spirit of existential bliss.

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    Translation

    One is well-established in truth; the other is kindled in the actions (waters). Enkindled with knowledge, the two fires worship the ascendant Lord, the bestower of light (bliss).

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    Translation

    Of these two fires one hot one is deposited in the fire and another one is shining in the waters. The two fires of sun, the celestial ones are enkindled with Ved mantras, grain and ghee.

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    Translation

    Of the two, one helps in the acquisition of knowledge, the other is united with the organs of action. Both kindled by vedic knowledge perform sacrifice for the yogi aspiring for salvation.

    Footnote

    Both: Prana, Apana.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५०−(सत्ये) नित्यत्वे (अन्यः) एकः परमाणुरूपः पदार्थः (समाहितः) यथावत् स्थापितः (अप्सु) प्रजासु (अन्यः) कार्यरूपः पदार्थः (समिध्यते) यथाविधि दीप्यते। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४९ ॥

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