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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - आर्षी निचृद्गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    70

    यं त्वा॒ पृष॑ती॒ रथे॒ प्रष्टि॒र्वह॑ति रोहित। शु॒भा या॑सि रि॒णन्न॒पः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम. । त्वा॒ । पृष॑ती । रथे॑ । प्रष्टि॑: । वह॑ति । रो॒हि॒त॒ । शु॒भा । या॒सि॒ । रि॒णन् । अ॒प: ॥१.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वा पृषती रथे प्रष्टिर्वहति रोहित। शुभा यासि रिणन्नपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम. । त्वा । पृषती । रथे । प्रष्टि: । वहति । रोहित । शुभा । यासि । रिणन् । अप: ॥१.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 21
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    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (रोहित) हे सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर !] (यम् त्वा) जिस तुझको (प्रष्टिः) प्रश्नयोग्य (पृषती) सींचनेवाली [प्रकृति] (रथे) रमणयोग्य [संसार] में (वहति) प्राप्त होती है। वह तू (अपः) प्रजाओं को (शुभा) शोभा के साथ (रिणन्) चलता हुआ (यासि) चलता है ॥२१॥

    भावार्थ

    खोजने से विवेकी लोग निश्चय करते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता परमेश्वर के सामर्थ्य से असीम प्रकृति में संयोग-वियोग होने से संसार का प्रादुर्भाव होता है ॥२१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ८।७।२८ ॥

    टिप्पणी

    २१−(यम्) (त्वा) परमेश्वरम् (पृषती) वर्त्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। पृषु सेचने-अति, ङीप्। सेचनशीला प्रकृतिः (रथे) अ० ४।१२।६। रमणीये संसारे (प्रष्टिः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-ति प्रष्टव्या (वहति) प्राप्नोति (रोहित) हे सर्वोत्पादक परमेश्वर (शुभा) शोभया (यासि) गच्छसि। प्राप्नोषि (रिणन्) रि हिंसायां गतौ च-शतृ। गमयन् (अपः) प्रजाः ॥

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    विषय

    पृषती

    पदार्थ

    १. हे (रोहित) = सदावृद्ध, तेजस्विन् प्रभो! (यं त्वा) = जिस आपको (रथे) = इस शरीररूप रथ में (पृषती) = [to weary, vex. pain] प्राकृतिक भोगविलास में कष्ट को अनुभव करनेवाला अतएव (प्रष्टिः) = [bystander] प्राकृतिक भोगों से उपराम हुआ-हुआ [एक ओर होकर खड़ा हुआ] यह साधक (वहति) = धारण करता है तब आप (शुभा यासि) = उसके लिए सब शुभों को प्राप्त कराते हैं और (अप: रिणन्) = उसके रेत:कणों को शरीर में ही प्रेरित करते हैं।

    भावार्थ

    प्रकृति चमकती है, जीव का उसकी ओर झुकाव होना स्वाभाविक है, परन्तु जब मनुष्य प्राकृतिक भोगों में विनाश अनुभव करता है तब वह प्रभु की ओर झुकता है। प्रभु उसे सब सखों को प्राप्त कराते हैं। अब यह साधक शरीरस्थ रेत:कणों की ऊर्ध्वगति के लिए यत्नशील होता है।

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    भाषार्थ

    (रोहितः) हे सिंहासनारूढ़ राजन्! (यम् त्वा) जिस तुझ को (पृषती) चितकबरी (प्रष्टिः) घोड़ी (रथे) रथ में (वहति) वहन करती हैं, वह तू (अपः रिणन्) जल का विमोचन करता हुआ, (शुभा) शोभा से युक्त हुआ (यासि) राष्ट्र में जाता है। [अथवा (रोहित) हे बीजों के उत्पादक! तथा बीजाङ्कुरों का प्रादुर्भाव करने वाले राजन्! (यं त्वा) जिस तुम को (पृषती) भूमि को सींचने वाली नहर के सदृश [शीघ्र गामिनी] (प्रष्टिः) घोड़ी (रथे) रथ में (बहति) ले चलती है, और तु (शुभा यासि) शोभायुक्त हुआ (यासि) जाता है, (अपः रिणन्) और जलों का विमोचन करता है। पृषती= पृषु सेचने। लुप्तोपमावाचक शब्द। बीजों के उत्पादन और बीजाङ्कुरों के उत्पादन के वर्णन के कारण पृषती है सींचने वाली नहर। पृषतियों का सम्बन्ध मानसून वायुओं के साथ है। यथा "पृषत्यो मरुताम्" (निघं० १।१५)। मरुतः= मानसून वायुएं (अथर्व० ४।२७। ४,५)]

    टिप्पणी

    [राष्ट्रन्नोति के लिये योजनाएं (projects) की जाती हैं। कृषि के लिये कुल्या (नहर) आदि के विमोचन का वर्णन मन्त्र में प्रतीत होता है। राजा इस का विमोचन करता है। रिणन्= रि गतौ]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (रोहित) रोहित, उच्च पदारूढ़ ! तेजस्विन् ! लाल पोशाक में सुसज्जित राजन् ! (यम् त्वा) जिस तुझको (रथे) रथ में लगी (पृषती) चित्र विचित्र वर्ण की (प्रष्टिः) घोड़ी (वहति) ले जाती है और सूर्य जिस प्रकार (अपः रिणन्) मेघ के जलों को परे हटाता हुआ सुन्दर किरणों से फैलता है उसी प्रकार तू (अपः) समस्त प्रजाओं को (रिणन्) परे हटाता हुआ (शुभा) अति सुन्दर रूप से (यासि) राष्ट्र में गमन करता है। अध्यात्म में—हे (रोहित) उत्पन्न जीव या उच्च-गति प्राप्त जीव ! (रथे यं त्वा पृषती प्रष्टिः वहति) रथ = रमण साधन इस देह में रसों का स्पर्श करने वाली व्यापक चिति शक्ति तुझे ऊर्ध्व मार्ग में ले जाती है तब (अपः रिणन्) समस्त कर्मों, कर्मबन्धनों को पार करके (शुभा यासि) शुभ मार्ग, कल्याण मार्ग, मोक्ष में गमन करता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यदेषां पृषती’ (तृ०) ‘यान्ति शुभ्रा रिणन्नपः’ इति ऋ०। तत्र पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः। मरुतो देवताः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O Rohita, O Ruler, O man, whom the leading creative and dynamic forces of the nation exalt and advance in the dominion like a leading team of horse driving the ruler’s chariot onwart, you move forward, higher and higher, along auspicious lines, releasing streams of energy and action on the national scale and leaving a glorious trail of progress and prosperity behind.

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    Translation

    Thou whom the spotted one(f.), the side-horse, draws (vah) in the chariot, O ruddy one, thou goest with brightness (Subh), making flow the waters:

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    Translation

    This sun, moon the rays like a cult-carry to the earth etc. agitative.

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    Translation

    O God, Matter, worthy of close examination, is placed at thy disposal,in this beautiful world splendidly guiding human beings. Thou residest in the extreme joy of salvation!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(यम्) (त्वा) परमेश्वरम् (पृषती) वर्त्तमाने पृषद्बृहन्मह०। उ० २।८४। पृषु सेचने-अति, ङीप्। सेचनशीला प्रकृतिः (रथे) अ० ४।१२।६। रमणीये संसारे (प्रष्टिः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-ति प्रष्टव्या (वहति) प्राप्नोति (रोहित) हे सर्वोत्पादक परमेश्वर (शुभा) शोभया (यासि) गच्छसि। प्राप्नोषि (रिणन्) रि हिंसायां गतौ च-शतृ। गमयन् (अपः) प्रजाः ॥

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