अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 55
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - ककुम्मती बृहतीगर्भा पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
34
स य॒ज्ञः प्र॑थ॒मो भू॒तो भव्यो॑ अजायत। तस्मा॑द्ध जज्ञ इ॒दं सर्वं॒ यत्किं चे॒दं वि॒रोच॑ते॒ रोहि॑तेन॒ ऋषि॒णाभृ॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । य॒ज्ञ: । प्र॒थ॒म: । भू॒त: । भव्य॑: । अ॒जा॒य॒त॒ । तस्मा॑त् । ह॒ । ज॒ज्ञे॒ । इ॒दम् । सर्व॑म् । यत् । किम् । च॒ । इ॒दम् । वि॒ऽरो॑चते । रोहि॑तेन । ऋषि॑णा । आऽभृ॑तम् ॥१.५५॥
स्वर रहित मन्त्र
स यज्ञः प्रथमो भूतो भव्यो अजायत। तस्माद्ध जज्ञ इदं सर्वं यत्किं चेदं विरोचते रोहितेन ऋषिणाभृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यज्ञ: । प्रथम: । भूत: । भव्य: । अजायत । तस्मात् । ह । जज्ञे । इदम् । सर्वम् । यत् । किम् । च । इदम् । विऽरोचते । रोहितेन । ऋषिणा । आऽभृतम् ॥१.५५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह (प्रथमः) सबसे पहिला (भूतः) वर्तमान हुआ और (भव्यः) आगे वर्तमान रहनेवाला (यज्ञः) पूजनीय [परमेश्वर] (अजायत) प्रकट हुआ। (तस्मात् ह) उससे ही (इदं सर्वम्) यह सब (जज्ञे) उत्पन्न हुआ (यत् किं च) जो कुछ भी (इदम्) यह [जगत्] (ऋषिणा) ऋषि [बड़े ज्ञानी] (रोहितेन) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] करके (आभृतम्) सब ओर से पाला गया (विरोचते) झलकता है ॥५५॥
भावार्थ
जो अविनाशी परमात्मा भूत और भविष्यत् में वर्तमान रहता है, उसी ने अपने सामर्थ्य से यह सब जगत् रचा है। बुद्धिमान् लोग ऐसा निश्चय करके अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥५५॥
टिप्पणी
५५−(सः) प्रसिद्धः (यज्ञः) यजनीयः परमेश्वरः (प्रथमः) आदिमः (भूतः) भूतकाले भवः (भव्यः) भविष्यति भवः (अजायत) प्रादुरभवत् (तस्मात्) परमेश्वरात् (ह) एव (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (इदम्) (सर्वम्) जगत् (यत्) (किं च) किमपि (इदम्) (विरोचते) विविधं दीप्यते दृश्यते (रोहितेन) सर्वोत्पादकेन (ऋषिणा) सर्वदर्शिना महाज्ञानिना (आभृतम्) समन्तात् पोषितम् ॥
विषय
'उत्पादक व धारक' प्रभु
पदार्थ
१. (सः) = वह (भूतः) = सदा से हुआ-हुआ-सदा से वर्तमान (भव्यः) = सदा रहनेवाला प्रभु (प्रथमः) = सर्वव्यापक व सर्वश्रेष्ठ (यज्ञः) = पूजनीय (अजायत) = हुआ। तस्मात् ह उस प्रभु से ही निश्चयपूर्वक (इदं सर्व जज्ञे) = यह सब-कुछ हुआ। (यत् किञ्च) = जो कुछ भी (इदं विरोचते) = यह चमकता है। 'यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं ममतेजोंऽश: सम्भवम् जो कुछ विभूति सम्पन्न है, वह सब उस प्रभु से हुआ है। २. प्रभु ने ही इन दीप्त पिण्डों को जन्म दिया है और (रोहितेन) = उस तेजस्वी, सदावृद्ध (ऋषिणा) = [ to kill] तत्वद्रष्टा व अज्ञानान्धकार नाशक प्रभु से ही (भृतम्) = धारण किया गया है।
भावार्थ
प्रभु ही अनादि-अनन्त यज्ञरूप हैं। वह प्रभु ही सब दीप्त पिण्डों को दीप्ति प्राप्त करा रहे हैं। उन सदावृद्ध, तेजस्वी, ज्ञानी प्रभु ने ही सृष्टि को धारण किया हुआ है।
भाषार्थ
(सः यज्ञः) वह यज्ञ (४६-५३), (प्रथमः) विस्तारवान् है (भूतः) पूर्वकल्पों में विस्तारवान (अजायत) हुआ है, (भव्यः) भविष्य में भी विस्तारवान् होगा। (तस्मात्) उस विस्तारवान् यज्ञ से, (ह) निश्चय रूप में, (इदं सर्वं जज्ञे) यह सब पैदा हुआ है, (यत् किं च इदं विरोचते) जो कुच्छ कि यह विविध प्रकार चमक रहा है, जो कि (रोहितेन ऋषिणा) सर्वोपरि आरूढ़ तथा ऋषि अर्थात् मन्त्रद्रष्टा परमेश्वर ने (आभृतम्) धारित तथा परिपुष्ट किया है।
टिप्पणी
[मनुष्य द्वारा रचित यज्ञ अल्प स्थान में किया जाता है, परन्तु रोहित द्वारा रचाया यज्ञ महाविस्तार वाला है। प्रत्येक कल्प में रोहित द्वारा रचाया यज्ञ विस्तारवान् ही होता है, "यथा पूर्वमकल्पयत्"। प्रथमः = प्रथ विस्तारे (निरुक्त, पृथिवी पद के व्याख्यान में]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(सः यज्ञः) वह महान् यज्ञ (प्रथमः) सब से प्रथम, सब से श्रेष्ठ (भूतः) महान् संसार रूप में उत्पन्न और (भव्यः) और निरन्तर होने वाला (अजायत) सम्पन्न हुआ। (तस्माद्) उस महान् यज्ञ से (इदं सर्वं जज्ञे) यह समस्त संसार उत्पन्न हुआ (यत् किं च) जो कुछ भी (इदं विरोचते) यह नाना प्रकार से शोभा दे रहा हैं और (रोहितेन) जिसको रोहित सर्वोत्पादक (ऋषिणा) और सूर्य के समान तेजस्वी ऋषि, सर्व क्रान्तद्रष्टा, अन्तर्यामी परमेश्वर (आभृतम्) धारण कर रहा है।
टिप्पणी
‘जज्ञैदम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
That Yajna, adorable supreme creator, first self- mainfested as all that ever was and shall be. From that arose all this that is and all that shines, sustained by omniscient creator Rohita.
Translation
He has been born as the first sacrifice, that had been, and that was to be, as well. From Him is born all this whatever shines pleasantly. All this has been provided by the ascendant Lord, the seer.
Translation
The first of all that Yajna the fire for past and future emerges out. All this whatever is present, this has been brought up by All-creating God who is the seer of all seers.
Translation
God existed in the Past and shall exist in Future, From Him arose this universe full of brightness. He has sustained this world.
Footnote
‘I’ may refer to the King.' प्रत्यङ्सूर्यं च मेहति may mean, if thou makest water before the Sun.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५५−(सः) प्रसिद्धः (यज्ञः) यजनीयः परमेश्वरः (प्रथमः) आदिमः (भूतः) भूतकाले भवः (भव्यः) भविष्यति भवः (अजायत) प्रादुरभवत् (तस्मात्) परमेश्वरात् (ह) एव (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (इदम्) (सर्वम्) जगत् (यत्) (किं च) किमपि (इदम्) (विरोचते) विविधं दीप्यते दृश्यते (रोहितेन) सर्वोत्पादकेन (ऋषिणा) सर्वदर्शिना महाज्ञानिना (आभृतम्) समन्तात् पोषितम् ॥
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