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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    66

    व॒त्सो वि॒राजो॑ वृष॒भो म॑ती॒नामा रु॑रोह शु॒क्रपृ॑ष्ठो॒ऽन्तरि॑क्षम्। घृ॒तेना॒र्कम॒भ्यर्चन्ति व॒त्सं ब्रह्म॒ सन्तं॒ ब्रह्म॑णा वर्धयन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒त्स: । वि॒ऽराज॑: । वृ॒ष॒भ: । म॒ती॒नाम् । आ । रु॒रो॒ह॒ । शु॒क्रऽपृ॑ष्ठ: । अ॒न्तर‍ि॑क्षम् । घृ॒तेन॑ । अ॒र्कम् । अ॒भि । अ॒र्च॒न्ति॒ । व॒त्सम् । ब्रह्म॑ । सन्त॑म् । ब्रह्म॑णा । व॒र्ध॒य॒न्ति॒ ॥१.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वत्सो विराजो वृषभो मतीनामा रुरोह शुक्रपृष्ठोऽन्तरिक्षम्। घृतेनार्कमभ्यर्चन्ति वत्सं ब्रह्म सन्तं ब्रह्मणा वर्धयन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वत्स: । विऽराज: । वृषभ: । मतीनाम् । आ । रुरोह । शुक्रऽपृष्ठ: । अन्तर‍िक्षम् । घृतेन । अर्कम् । अभि । अर्चन्ति । वत्सम् । ब्रह्म । सन्तम् । ब्रह्मणा । वर्धयन्ति ॥१.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 33
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वत्सः) उपदेश करनेवाला, (विराजः) बड़े ऐश्वर्यवाला, (शुक्रपृष्ठः) वीरता बढ़ानेवाला (वृषभः) बड़ी शक्तिवाला [पुरुष] (मतीनाम्) बुद्धिमानों के (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्ती दृश्य पर (आ रुरोह) ऊँचा हुआ है। वे [बुद्धिमान् लोग] (घृतेन) प्रकाश के साथ [वर्तमान] (अर्कम्) पूजनीय, (वत्सम्) उपदेश करनेवाले [परमेश्वर] को (अभि) सब ओर से (अर्चन्ति) पूजते हैं और (सन्तम्) सेवनीय (ब्रह्म) ब्रह्म [सबसे बड़े परमेश्वर] को (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (वर्धयन्ति) बढ़ाते हैं [सराहते हैं] ॥३३॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर ने बड़े-बड़े पराक्रमी शूर वीर पुरुष बनाये हैं, उसकी महिमा को ज्ञानी लोग जानकर संसार में प्रकट करते हैं ॥३३॥

    टिप्पणी

    ३३−(वत्सः) वद कथने स प्रत्ययः। उपदेशकः (विराजः) राजाहःसखिभ्यष्टच्। पा० ५।४।९१। विराजन्-टच्, तत्पुरुषे। विविधैश्वर्यवान् (वृषभः) शक्तिमान् (मतीनाम्) मतयो मेधाविनः-निघ० ३।१५। मेधाविनां मध्ये (आरुरोह) आरूढवान् (शुक्रपृष्ठः) शुक्रस्य वीर्यस्य पराक्रमस्य पृष्ठं सेचनं यस्मात् सः (अन्तरिक्षम्) अन्तर् मध्ये ईक्ष्यमाणं दृश्यमानं पदम् (घृतेन) प्रकाशेन सह (अर्कम्) अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्ति-निरु० ५।४। अर्चनीयम् (अभि) अभितः (अर्चन्ति) पूजयन्ति (वत्सम्) उपदेशकम् (ब्रह्म) प्रवृद्धं परमात्मानम् (सन्तम्) हसिमृग्रिण्वामि०। उ० ३।८६। षण संभक्तौ-तन्। सेवनीयम् (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (वर्धयन्ति) स्तुवन्ति ॥

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    विषय

    घृतेन ब्रह्मणा

    पदार्थ

    १. (विराजः वत्सः) = [वत्सः वसतीति] विराट् में अधिष्ठातृरूपेण निवास करनेवाला [ततो विराङजायत, विराजोऽधि पुरुषः], (मतीनां वृषभ:) = बुद्धियों का, ज्ञानों का वर्णन करनेवाला (शुक्रपृष्ठः) = देदीप्यमान् पृष्ठवाला, अर्थात् अत्यन्त तेजस्वी प्रभु (अन्तरिक्षं आरुरोह) = हमारे हृदय अन्तरिक्ष में आरोहण करता है। हम हृदय में विराट् पिण्ड द्वारा सृष्टि के निर्माता प्रभु का स्मरण करते हैं। प्रभ ही हमें बुद्धियों को प्रास कराते हैं। वे प्रभु तेजोदीस [आदित्यवर्ण] हैं। २. इस (अर्कम्) = अर्चनीय, (वत्सम्) = सर्वत्र निवासवाले व वेदज्ञान का उपदेश करनेवाले प्रभु को उपासक घृतेन मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति के द्वारा (अभ्यर्चन्ति) = पूजते हैं। (ब्रह्म सन्तम्) = उपासक ज्ञानस्वरूप होते हुए प्रभु को ब्रह्मणा (वर्धयन्ति) = ज्ञान के द्वारा अपने अन्दर बढ़ाते हैं।

    भावार्थ

    हम विराट् पिण्ड में निवास करनेवाले, बुद्धियों के वर्धक, तेज:पुञ्ज प्रभु का हृदयों में ध्यान करें। हम प्रभु को मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति द्वारा पूजें। ब्रह्म का पूजन ब्रह्म [ज्ञान] द्वारा ही हो सकता है।

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    भाषार्थ

    (विराजः) विविध कृतियों में प्रदीप्त हो रही प्रकृति का (वत्सः) वत्सरूप, (मतीनाम्) ज्ञानों की (वृषभः) वर्षा करने वाला, (शुक्रपृष्ठ:) शुभ्रसूर्य के लिये पृष्ठवत् आधारभूत परमेश्वर, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष या हृदयान्तरिक्ष में (आ रुरोह) आरूढ़ हुआ है। उपासक (अर्कम्) स्तुत्य (वत्सम्) वत्सरूपी परमेश्वर की (घृतेन) घृतादि पदार्थों द्वारा (अभ्यर्चन्ति) स्तुतियां करते हैं, (ब्रह्म सन्तम्) ब्रह्म अर्थात् सर्वतो बृहत् होते हुए की (ब्रह्मणा) ब्रह्म वेद या वेदमन्त्रों द्वारा (वर्धयन्ति) बढ़ाई करते हैं।

    टिप्पणी

    [विराजः = प्रकृति का। प्रकृति ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादिरूप में, तथा समग्र जड़ और प्राणी जगत् में चमक रही तथा विराजमान हो रहीं है। परमेश्वर इस का वत्सरूप है। प्राकृतिक कृतियों द्वारा इन के कर्त्ता का अनुमानरूपी ज्ञान हमें होता है। योगियों को समाधि में परमेश्वर का साक्षात् होता है। परन्तु वह भी प्राकृतिक शरीर तथा चित्त की सहायता द्वारा। इसलिये परमेश्वर को विराट् अर्थात् प्रकृति का पुत्र (वत्स) कहा है। क्योंकि वह प्रकृति द्वारा प्रकट होता है। वृषभः = वेदों द्वारा परमेश्वर मतियों अर्थात् ज्ञानों की वर्षा कर रहा है। शुक्रपृष्ठः= सूर्य की रश्मियां शुभ्र हैं, सुफैद हैं। इसलिये सूर्य शुक्र है। सूर्य मानो परमेश्वर को पृष्ठ मान कर, इस पीठ पर सवार हुआ गति कर रहा है। घृतेन= जैसे घृतादि पदार्थों द्वारा शिशु की सेवा, तथा प्रशंसावचनों द्वारा उस की प्रशंसा या स्तुति की जाती है, वैसे उपासक लोग घृतादि साध्य यज्ञों द्वारा प्रेम भर स्नेह पूर्वक परमेश्वर की स्तुतियां करते और उस की बढ़ाई करते हैं। मन्त्र में ब्रह्म शब्द जता रहा है कि मन्त्र परमेश्वर परक है]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (विराजः) विराट् समस्त ब्रह्माण्ड को (वत्सः) आच्छादित करने वाला, उसमें व्यापक और (मतीनाम् वृषभः) सब स्तुतियों और ज्ञानों को वहन करने वाला या ज्ञानवान् पुरुषों में से सब से श्रेष्ठ वह (शुक्रपृष्टः) तेजःस्वरूप होकर (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में भी (आरुरोह) व्यापक है। विद्वान् लोग (अ) अच करने योग्य, पूजनीय (वत्सं) व्यापक परमेश्वर को (घृतेन) देव-उपसना या ज्ञान द्वारा (श्रर्चन्ति) उसकी स्तुति वन्दना करते हैं। (ब्रह्म सन्तं) ब्रह्मस्वरूप, सत् रूप उस परमेश्वर को (ब्रह्मणा) ब्रह्म = वेद द्वारा (वर्धयन्ति) उसकी महिमा का गान करते हैं। ‘देवव्रतं वै घृतम्’ ता० १८। २। ६॥

    टिप्पणी

    ‘पिता विरस्तां ऋषभो रयीणाम् अन्तरिक्षं विश्वरूप आविवेश’। ‘तमकैरभ्यर्चन्ति वत्सं ब्रह्मसन्तं ब्रह्मणा वर्धयन्तः’। इति तै० ब्रा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Darling child of the cosmic mother form, mighty virile and generous, firmly based in light and purity, rises on top of the firmament and moves to the heart and love of the sagely wise. Sages and people do homage with ghrta to the adorable darling of their love, and mighty great as he is, highest among humanity, they exalt him with hymns of the Veda.

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    Translation

    The calf of Viraj, the bull of intellects, with his back shining, has ascended to the midspace. With purified butter they adore the young sun. Him, who is knowledge Himself though, they augment with knowledge.

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    Translation

    The sun, who is son of dawn being the symbol of all our praises, brilliant in its bake (also rise up in the mid region (sky). The performer of Yajna offer oblation for and praise the sun. The sun is though tremendously great yet they make it greater through praises.

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    Translation

    God, the Engulfer of the universe, the Master of all eulogies and sciences, full of refulgence, pervades the atmosphere. The learned, through knowledge praise the Adorable God. Him, Who is God, they exalt through Vedic knowledge

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३३−(वत्सः) वद कथने स प्रत्ययः। उपदेशकः (विराजः) राजाहःसखिभ्यष्टच्। पा० ५।४।९१। विराजन्-टच्, तत्पुरुषे। विविधैश्वर्यवान् (वृषभः) शक्तिमान् (मतीनाम्) मतयो मेधाविनः-निघ० ३।१५। मेधाविनां मध्ये (आरुरोह) आरूढवान् (शुक्रपृष्ठः) शुक्रस्य वीर्यस्य पराक्रमस्य पृष्ठं सेचनं यस्मात् सः (अन्तरिक्षम्) अन्तर् मध्ये ईक्ष्यमाणं दृश्यमानं पदम् (घृतेन) प्रकाशेन सह (अर्कम्) अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्ति-निरु० ५।४। अर्चनीयम् (अभि) अभितः (अर्चन्ति) पूजयन्ति (वत्सम्) उपदेशकम् (ब्रह्म) प्रवृद्धं परमात्मानम् (सन्तम्) हसिमृग्रिण्वामि०। उ० ३।८६। षण संभक्तौ-तन्। सेवनीयम् (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (वर्धयन्ति) स्तुवन्ति ॥

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