अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - निचृन्महाबृहती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
56
उत्त्वा॑ य॒ज्ञा ब्रह्म॑पूता वहन्त्यध्व॒गतो॒ हर॑यस्त्वा वहन्ति। ति॒रः स॑मु॒द्रमति॑ रोचसेऽर्ण॒वम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒ । य॒ज्ञा: । ब्रह्म॑ऽपूता: । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒ऽगत॑: । हर॑य: । त्वा॒ । व॒ह॒न्ति॒ । ति॒र: । स॒मु॒द्रम् । अति॑ । रो॒च॒से॒ । अ॒र्ण॒वम् ॥१.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वा यज्ञा ब्रह्मपूता वहन्त्यध्वगतो हरयस्त्वा वहन्ति। तिरः समुद्रमति रोचसेऽर्णवम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा । यज्ञा: । ब्रह्मऽपूता: । वहन्ति । अध्वऽगत: । हरय: । त्वा । वहन्ति । तिर: । समुद्रम् । अति । रोचसे । अर्णवम् ॥१.३६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] (त्वा) तुझको (ब्रह्मपूताः) ब्रह्माओं [वेदवेत्ताओं] द्वारा शुद्ध किये गये (यज्ञाः) यज्ञ [संगतियोग्य व्यवहार] (उत्) उत्तमता से (वहन्ति) प्राप्त होते हैं, (अध्वगतः) [वेदविहित] मार्ग पर चलनेवाले (हरयः) मनुष्य (त्वा) तुझको (वहन्ति) पाते हैं। (अर्णवम्) जल से भरे (समुद्रम्) समुद्र को (तिरः) तिरस्कार करके तू (अति) अत्यन्त करके (रोचसे) प्रकाशमान होता है ॥३६॥
भावार्थ
परमेश्वर में सब पदार्थ व्याप्त हैं, वेदानुयायी पुरुष बहुत खोज कर अगम्य स्थानों में भी पाकर आनन्दित होते हैं ॥३६॥
टिप्पणी
३६−(उत्) उत्तमतया (त्वा) परमात्मानम् (यज्ञाः) संगतियोग्यव्यवहाराः (ब्रह्मपूताः) वेदवेत्तृभिः शोधिताः (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति (अध्वगतः) वेदविहितमार्गगन्तारः (हरयः) मनुष्याः-निघ० २।३। (त्वा) (वहन्ति) (तिरः) तिरस्कृत्य (समुद्रम्) समुद्रवदगम्यम् (अति) अत्यन्तम् (रोचसे) दीप्यसे (अर्णवम्) जलपूर्णम् ॥
विषय
'ब्रह्मपूताः यज्ञाः', 'अध्वगतः हरयः'
पदार्थ
१. गतमन्त्र में संकेतित देव बनने के लिए हमें क्या करना है? इसका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (ब्रह्मपूता: यज्ञाः उद्वहन्ति) = वेदमन्त्रों से पवित्र हुए-हुए यज्ञ विषयवासनाओं से ऊपर उठाते हैं। (अध्वगतः हरयः) = मार्ग पर चलनेवाले घोड़े-ये इन्द्रियाश्व (त्वा वहन्ति) = तुझे प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं। यदि हमारे इन्द्रियाश्व विषयर्पक में मग्न न होकर मार्ग पर आगे बढ़ेंगे, तो हम प्रभु को प्राप्त करेंगे ही। २. इसप्रकार यज्ञनशील बनकर इन्द्रियाश्व द्वारा मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ व्यक्ति प्रभु को प्राप्त करता है। इस व्यक्ति के लिए कहते हैं कि तू (समुद्रं अर्णवम्) = इस गतिशील अणुसमुद्र से बने ब्रह्माण्ड से (तिरः अतिरोचसे) = पार होकर अतिशयेन देदीप्यमान होता है। [ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः]। यज्ञ करना और मार्ग पर आगे बढ़ना ही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।
भावार्थ
हम वेदमन्त्रों के साथ यज्ञ करें तथा इन्द्रियाश्यों को मार्ग से भटकने से बचाएँ। यही संसार से पार होने का मार्ग है। इसी मार्ग से प्रभु को प्राप्त होकर हम दीत जीवनवाले बन पाएंगे।
भाषार्थ
(ब्रह्मपूताः) ब्रह्म के संस्पर्श के कारण पवित्र हुए (यज्ञाः) तेरे यज्ञिय कर्म (त्वा) तुझे (उत् वहन्ति) उत्कृष्टता की ओर ले जाते हैं। इस प्रकार तु (अध्वगतः) [भवसि] सन्मार्गगामी बनता है, (हरयः) प्रत्याहार सम्पन्न तेरे इन्द्रियाश्व, (त्वा) तुझे या तेरे शरीर का (वहन्ति) वहन करते हैं। तू (अर्णवम्) जल वाले (समुद्रम् तिरः) समुद्र से पार तक (अति रोचसे) अति कीर्तिमान हो जाता है। तेरी कीर्ति समुद्र पार के प्रदेशों में भी फैल जाती है।
टिप्पणी
[मन्त्र ३४ में कथित "रोहितेन संस्पृशस्व" का फलनिर्देश मन्त्र ३६ में किया है]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे रोहित ! परमेश्वर ! (त्वा) तुझे (ब्रह्मपूताः) ब्रह्म वेदमन्त्रों से पवित्र (यज्ञाः) यज्ञ (उत् वहन्ति) धारण करते हैं, तेरा गौरव दर्शाते हैं। (हरयः) हरण करने वाले घोड़े, जिस प्रकार मार्ग में रथ को ढो ले जाते हैं, या सूर्यकिरणें जिस प्रकार आकाश में सूर्य को वहन करती हैं उसी प्रकार (अध्वगतः हरयः) मोक्ष मार्ग पर विचरण करने वाले = हरि मुक्त जीवगण (त्वा वहन्ति) तुझे अपने हृदय में धारण करते हैं। जीवात्मन् ! तू (समुद्रम् तिरः) समस्त कामनाओं को प्रदान करने वाले, समस्त आनन्दों के सागर परमात्मा को प्राप्त करके (अर्णवम् अति) अन्तरिक्ष को पार करके सूर्य के समान, तू भी इस संसार-सागर को पार करके (रोचसे) अति प्रकाशित होता है। राजा के पक्ष में—हरयः = विद्वान् या अश्व। यज्ञ = राष्ट्र।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘वसुजित् गोजित संघनाजिति’ (तृ०) ‘द्रविणानि सप्ततिः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Rohita, divine spirit of man, brilliant ruler, the yajnas sanctified by Veda and blest by Divinity raise you high. Purified senses, mind and intelligence, noble sages on the path divine, all take you forward, thereby you cross the earthly sea and spatial ocean and shine beyond in the light of Divinity.
Translation
The sacrifices, purified with knowledge, carry you upwards; the coursers, always travelling on the paths, carry you upwards. You shine gracefully across the restless sea.
Translation
May the Yajna purified with vedic mantras, raise you to high status, strong man. May the horses covering their ways carry you. May you shine over the ocean full of water.
Translation
O 'God, sacrifices, purified through Vedic verses exalt Thee. Souls traveling on the path of salvation, instal Thee in their heart. Thy light shines over sea and billowy ocean.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३६−(उत्) उत्तमतया (त्वा) परमात्मानम् (यज्ञाः) संगतियोग्यव्यवहाराः (ब्रह्मपूताः) वेदवेत्तृभिः शोधिताः (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति (अध्वगतः) वेदविहितमार्गगन्तारः (हरयः) मनुष्याः-निघ० २।३। (त्वा) (वहन्ति) (तिरः) तिरस्कृत्य (समुद्रम्) समुद्रवदगम्यम् (अति) अत्यन्तम् (रोचसे) दीप्यसे (अर्णवम्) जलपूर्णम् ॥
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