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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    119

    रोहि॑तो॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑दृंह॒त्तेन॒ स्व स्तभि॒तं तेन॒ नाकः॑। तेना॒न्तरि॑क्षं॒ विमि॑ता॒ रजां॑सि॒ तेन॑ दे॒वा अ॒मृत॒मन्व॑विन्दन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रोहि॑त: । द्यावा॑पृथि॒वी इत‍ि॑ । अ॒दृं॒ह॒त् । तेन॑ । स्व᳡: । स्त॒भि॒तम् । तेन॑ । नाक॑: । तेन॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । विऽमि॑ता । रजां॑सि । तेन॑ । दे॒वा: । अ॒मृत॑म् । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒न् ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रोहितो द्यावापृथिवी अदृंहत्तेन स्व स्तभितं तेन नाकः। तेनान्तरिक्षं विमिता रजांसि तेन देवा अमृतमन्वविन्दन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रोहित: । द्यावापृथिवी इत‍ि । अदृंहत् । तेन । स्व: । स्तभितम् । तेन । नाक: । तेन । अन्तरिक्षम् । विऽमिता । रजांसि । तेन । देवा: । अमृतम् । अनु । अविन्दन् ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और भूमि को (अदृंहत्) दृढ़ किया, (तेन) उसी करके (स्वः) सामान्य सुख [अभ्युदय] (स्तभितम्) थाँभा गया है, (तेन) उसी करके (नाकः) विशेष सुख [निःश्रेयस मोक्षसुख, थाँभा गया है]। (तेन) उसी करके (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष और (रजांसि) सब लोक (विमिता) नाप डाले गये हैं, (तेन) उससे ही (देवाः) विद्वानों ने (अमृतम्) अमरपन [उत्साहवर्धक मोक्षसुख] (अनु) निरन्तर (अविन्दन्) पाया है ॥७॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर ने सब सृष्टि रची है और जो सबका नियन्ता है, उसी जगदीश्वर के ज्ञान से मनुष्य उन्नति करके आनन्द पाते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(रोहितः) म० १। (द्यावापृथिवी) (अदृंहत्) दृढीकृतवान् (तेन) रोहितेन (स्वः) सामान्यसुखम्। अभ्युदयः (स्तभितम्) दृढीकृतम् (तेन) (नाकः) विशेषसुखम्। निःश्रेयसम्। मोक्षसुखम् (तेन) (अन्तरिक्षम्) (विमिता) विविधं परिमितानि (रजांसि) लोकाः (तेन) रोहितेन (देवाः) विद्वांसः (अमृतम्) अमरणम्। पुरुषार्थम् (अनु) निरन्तरम् (अविन्दन्) अलभन्त ॥

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    विषय

    तेन स्वः स्तभितं तेन नाक:

    पदार्थ

    १. (रोहित:) = वह तेजोमय प्रभु (द्यावापृथिवी अदृहत्) = द्युलोक व पृथिवीलोक को दृढ़ करते हैं। बल से उनका धारण करते हैं। (तेन) = उस प्रभु ने ही (स्वः स्तभितम्) = स्वर्गलोक को थामा है, (तेन नाक:) = मोक्षलोक को धारण करनेवाले भी वे प्रभु ही हैं। २. (तेन) = उस प्रभु ने ही (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष को व (रजांसि) = लोकों को (विमित:) = विशेष मानपूर्वक बनाया है। (तेन) = उस प्रभु के आश्रय से ही (देवा:) = देववृत्ति के लोग अमृतं अन्यविन्दन्-अमृत को-मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु की शक्ति से ही द्यावापृथिवी दृढ़ किये गये हैं। प्रभु ने ही स्वर्ग व मोक्ष को थामा हुआ है। प्रभु ही अन्तरिक्ष व विविध लोकों को मानपूर्वक बनाते हैं। प्रभु के आश्रय से ही देव अमृतत्व को प्राप्त करते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर ने (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी को (अदृंहत्) सुदृढ़ किया है, (तेन) उस ने (स्वः) स्वर्लोक को (स्तभितम्) थामा हुआ है, (तेन) उस ने (नाकः) मोक्ष को थामा हुआ है। (तेन) उस ने (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष तथा (रजांसि) सब लोक (विमिता=विमितानि) मापे हुए हैं, (तेन) उस द्वारा अर्थात् उस की कृपा से (देवाः) दिव्यकोटि के लोग (अमृतम्) अमृत परमेश्वर या मोक्ष को (अन्वविन्दन्) पाए हैं।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (रोहितः) उस सर्वोत्पादक, सर्वोपरि विराजमान, परमेश्वर ने (द्यावावृथिवी) द्यौ और पृथिवी को (अदृंहत्) दृढ़ता से स्थिर किया। (तेन) उसने ही (स्वः) यह स्वर्गलोक, तेजोमय प्रकाशमान पिण्ड और (तेन नाकः) उसने ही समस्त ‘नाक’ सुखमय लोक (स्तभितम्) थाम रखे हैं। और उसी ने (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष यह वायुमय स्थान और (रजांसि) ये समस्त तारे आदि लोक (विमिता) नाना प्रकार के बनाये हैं (तेन) उसके अनुग्रह से (देवाः) दिव्यलोक सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु आदि पदार्थ और आत्मदर्शन करनेहारे विद्वान् लोग भी (अमृतम्) अमृत अविनाशी अक्षयरूप को (अनु अविन्दन्) प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    (तृ० च०) ‘सोऽन्तरिक्षे रजसो विमानस्तेन देवास्वरन्वविन्दन्’ इति तै० ब्रा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Rohita, self-refulgent lord creator, fixed and firmed the heaven and earth in orbit. It is by him the heaven of bliss is sustained, by him are the middle regions and space comprehended, and by him the divine sages attain the immortal nectar of bliss.

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    Translation

    The ascendant Lord has made the heaven and earth steady; the world of light and the sorrowless world has been held firm by Him. The midspace and the regions have been measured out by Him; through Him the enlightened ones have gained immortality.

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    Translation

    Rohita, the sun, firmly establishes the heavenly region and the earth. By it is held ethereal light. and by It the sky. By it are measured the firmament and all the worlds and by it the shining rays receive their immortality on water.

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    Translation

    God firmly established Earth and Heaven. He has granted us the worldly pleasure and the pleasure of salvation. He measured out mid-air and all the regions. Through His grace have the learned secured final beatitude

    Footnote

    Final beatitude: Emancipation, Moksha.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(रोहितः) म० १। (द्यावापृथिवी) (अदृंहत्) दृढीकृतवान् (तेन) रोहितेन (स्वः) सामान्यसुखम्। अभ्युदयः (स्तभितम्) दृढीकृतम् (तेन) (नाकः) विशेषसुखम्। निःश्रेयसम्। मोक्षसुखम् (तेन) (अन्तरिक्षम्) (विमिता) विविधं परिमितानि (रजांसि) लोकाः (तेन) रोहितेन (देवाः) विद्वांसः (अमृतम्) अमरणम्। पुरुषार्थम् (अनु) निरन्तरम् (अविन्दन्) अलभन्त ॥

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