अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 46
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
62
उ॒र्वीरा॑सन्परि॒धयो॒ वेदि॒र्भूमि॑रकल्पत। तत्रै॒ताव॒ग्नी आध॑त्त हि॒मं घ्रं॒सं च॒ रोहि॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒र्वी: । आ॒स॒न् । प॒रि॒ऽधय॑: । वेदि॑: । भूमि॑: । अ॒क॒ल्प॒त॒ । तत्र॑ । ए॒तौ । अ॒ग्नी इति॑ । आ । अ॒ध॒त्त॒ । हि॒मम् । घ्रं॒सम् । च॒ । रोहि॑त: ॥१.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
उर्वीरासन्परिधयो वेदिर्भूमिरकल्पत। तत्रैतावग्नी आधत्त हिमं घ्रंसं च रोहितः ॥
स्वर रहित पद पाठउर्वी: । आसन् । परिऽधय: । वेदि: । भूमि: । अकल्पत । तत्र । एतौ । अग्नी इति । आ । अधत्त । हिमम् । घ्रंसम् । च । रोहित: ॥१.४६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
[संसार में] (उर्वीः) चौड़ी [दिशाएँ] (परिधयः) परकोटा रूप (आसन्) हुईं, (भूमिः) भूमि (वेदिः) वेदि [यज्ञकुण्ड] रूप (अकल्पत) बनायी गयी। (तत्र) उस में (रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर ने (एतौ) इन (अग्नी) दो अग्नियों [सूर्य और चन्द्रमा] को (घ्रंसम्) ताप (च) और (हिमम्) शीतरूप (आ अधत्त) स्थापित किया ॥४६॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर के बनाये दिशाओं, भूमि, सूर्य, चन्द्र, ताप, शीत आदि से विज्ञानपूर्वक उपकार लेवें ॥४६॥
टिप्पणी
४६−(उर्वीः) उर्व्यः। विस्तृता दिशाः (आसन्) (परिधयः) प्राकाररूपाः (वेदिः) यज्ञकुण्डरूपा (भूमिः) (अकल्पत) रचिताऽऽसीत् (तत्र) (एतौ) प्रसिद्धौ (अग्नी) सूर्याचन्द्रमसौ (आ अधत्त) स्थापितवान् (हिमम्) शीतम् (घ्रंसम्) दिवः कित्। उ० ३।१२१। घृ दीप्तौ-असच्, कित्, पृषोदरादित्वाद्, नकारः। घ्रंसोऽहर्नाम-निघ० १।९। तापम् (च) (रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः ॥
विषय
रोहित का महान् सृष्टियज्ञ
पदार्थ
१. प्रभु ने जब इस सृष्टियज्ञ को आरम्भ किया तब (उर्वी:) = विशाल दिशाएँ (परिधयः आसन्) = परिधियाँ हुई-परकोटा बनीं। (भूमि: वेदिः अकल्पत) = यह भूमि वेदि बनी और (तत:) = उस भूमिरूप वेदि पर (रोहित:) = उस तेजस्वी, सदावृद्ध प्रभु ने (एतौ) = इन दोनों अपनी-अग्नियों को (आधत्त) = स्थापित किया। (हिमं घंसं च) = एक अग्नि तो शीतल ज्योत्स्नावाली चन्द्ररूप थी तथा द्वितीय अग्नि देदीप्यमान सूर्यरूप थी इस सृष्टियज्ञ के दिन-रात में क्रमशः सूर्य व चन्द्र ही अग्नि हैं। इन्हीं में यह सृष्टियज्ञ चल रहा है।
भावार्थ
प्रभु के इस सृष्टियज्ञ में विशाल दिशाएँ परिधिरूप हैं। भूमि वेदि है और सूर्य व चन्द्र अग्निरूप हैं।
भाषार्थ
(उर्वीः) विस्तृत दिशाएं (परिधयः आसन्) परिधियां थीं, (रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर ने (भूमिः) भूमि को (वेदिः) वेदि (अकल्पयत्) बनाया। (तत्र) उसे वेदि में उस ने (एतौ) इन दो (अग्नी) अग्नियों का (आधत्त) आधान किया, (हिमम् घ्रंसं च) शीत की और गर्म की।
टिप्पणी
[वेदि को घेरने के लिये उस के चारों ओर घेरा डालते हैं, इसे परिधि कहते हैं। भूमि को परमेश्वर ने वेदि कल्पित किया, और उस के चारों ओर स्थित दिशाओं को परिधि कल्पित किया। वेदि में दो मुख्य अग्नियों का आधान किया जाता है— गार्हपत्याग्नि का और आहवनीयाग्नि का। गार्हपत्य कुण्ड से अग्नि को उठा कर, आहवनीयकुण्ड में उसे स्थापित किया जाता है। भूमिरूपी वेदि में परमेश्वर ने दो अग्नियों का आधान किया, हिम अर्थात् शीत चन्द्रमा का, और घ्रंस अर्थात् दिन के समान गर्म सूर्य का। सूर्य गार्हपत्याग्नि रूप है और चन्द्रमा आहवनीयाग्निरूप। सूर्य की अग्नि का आधान चन्द्रमा में होता है। इन दोनों अग्नियों का प्रकाश पृथिवी में होता है। घ्रंसः अहर्नामः (निघं० १।९)। दिन का निर्माण सूर्य द्वारा होता है, अतः घ्रंस पद सूर्य का उपलक्षक है।]
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
रोहित का महान् यज्ञ। (उर्वीः) विशाल बड़ी बड़ी दिशाएं (परिधयः) पृथ्वीरूप वेदि के परकोट (आसन्) हैं और वे (भूमिः) भूमि (वेदिः) वेदि (अकल्पत) बन गई। (तत्र) उस भूमिरूप वेद में (एतौ) इन दो प्रकार के (अग्नी) अग्नियों को (रोहितः) सर्वोत्पादक परमेश्वर (आधत्त) स्थापित करता है, उनमें से एक (हिमम्) हिम और दूसरा (घ्रंसम्) घ्रंस, सर्दी और गर्मी।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
The expansions of vast space are borders of cosmic yajna, of which the earth is formed as vedi. Thereon Rohita, Lord Supreme, the Sun, has placed these fires of cold-and-heat in creative complementarity.
Translation
The spaces (urvih) were the fences, the earth formed the altar. There the ascendant Lord set these two fires, the cold and the heat.
Translation
The great directions become the surrounding boundaries of (the Yajna Vedi which is made in the cosmic process) this earth is made Vedic The sun establishes therein two fires Ghansa, the hot one and Hima, the cold one.
Translation
The earth was made the altar, and the wide directions were the fence. There God established both these fires, the fervent hot Sun and the cold Moon
Footnote
Some interpret the fires as Summer Sun and Winter Sun.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४६−(उर्वीः) उर्व्यः। विस्तृता दिशाः (आसन्) (परिधयः) प्राकाररूपाः (वेदिः) यज्ञकुण्डरूपा (भूमिः) (अकल्पत) रचिताऽऽसीत् (तत्र) (एतौ) प्रसिद्धौ (अग्नी) सूर्याचन्द्रमसौ (आ अधत्त) स्थापितवान् (हिमम्) शीतम् (घ्रंसम्) दिवः कित्। उ० ३।१२१। घृ दीप्तौ-असच्, कित्, पृषोदरादित्वाद्, नकारः। घ्रंसोऽहर्नाम-निघ० १।९। तापम् (च) (रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः ॥
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