अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - पञ्चपदा परातिजागता ककुम्मत्यतिजगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
51
वाच॑स्पते सौमन॒सं मन॑श्च गो॒ष्ठे नो॒ गा ज॒नय॒ योनि॑षु प्र॒जाः। इ॒हैव प्रा॒णः स॒ख्ये नो॑ अस्तु॒ तं त्वा॑ परमेष्ठि॒न्पर्य॒हमायु॑षा॒ वर्च॑सा दधामि ॥
स्वर सहित पद पाठवाच॑: । प॒ते॒ । सौ॒म॒न॒सम् । मन॑: । च॒ । गो॒ऽस्थे । न॒: । गा: । ज॒नय॑ । योनि॑षु । प्र॒ऽजा: । इ॒ह । ए॒व । प्रा॒ण: । स॒ख्ये । न॒: । अ॒स्तु॒ । तम् । त्वा॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थि॒न् । परि॑ । अ॒हम् । आयु॑षा । वर्च॑सा । द॒धा॒मि॒ ॥१.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचस्पते सौमनसं मनश्च गोष्ठे नो गा जनय योनिषु प्रजाः। इहैव प्राणः सख्ये नो अस्तु तं त्वा परमेष्ठिन्पर्यहमायुषा वर्चसा दधामि ॥
स्वर रहित पद पाठवाच: । पते । सौमनसम् । मन: । च । गोऽस्थे । न: । गा: । जनय । योनिषु । प्रऽजा: । इह । एव । प्राण: । सख्ये । न: । अस्तु । तम् । त्वा । परमेऽस्थिन् । परि । अहम् । आयुषा । वर्चसा । दधामि ॥१.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(वाचः पते) हे वेदवाणी के स्वामी [परमेश्वर !] (सौमनसम्) शुभचिन्तकता, (मनः) मनन, (गाः) वाणियों [नीतियों] (च) और (प्रजाः) प्रजाओं [पुत्र, पौत्र, राज्यजनों] को (नः) हमारी (गोष्ठे) गोष्ठ [बातों के स्थान] में और (योनिषु) घरों में (जनय) उत्पन्न कर। (इइ एव) यहाँ ही [इसी मनुष्यजन्म में] (प्राणः) प्राण [जीवन, वायु] (नः) हमारी (सख्ये) मित्रता में (अस्तु) होवे, (परमेष्ठिन्) हे बड़े ऊँचे पदवाले [परमेश्वर !] (तम् त्वा) उस तुझको (अहम्) मैं [मनुष्य] (आयुषा) आयु के साथ और (वर्चसा) प्रताप के साथ (परि) सब ओर से (दधामि) धारण करता हूँ ॥१९॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमेश्वर की वेदोक्त आज्ञा पर चल कर अपनी सभा और घर को सुनीतिज्ञ बना कर परस्पर हित करते हैं, वे ही संसार में यशस्वी होते हैं ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(सौमनसम्) शुभचिन्तकत्वम् (मनः) मननम् (च) (गोष्ठे) वाचालये (नः) अस्माकम् (गाः) वाणीः। नीतीः। (जनय) उत्पादय (योनिषु) गृहेषु (प्रजाः) पुत्रपौत्रराज्यजनान् (अहम्) मनुष्यः (दधामि) स्थापयामि। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥
विषय
सौमनसं गा: प्रजा:
पदार्थ
१.हे (वाचस्पते) = ज्ञान की वाणियों के स्वामिन् प्रभो। आप (नः) = हमारे लिए (सौमनसं मन:) = प्रशस्त प्रसादमय मननवाले मन को (जनय) = उत्पन्न कीजिए (च) = और (गोष्ठे) = हमारी गौशाला में (गा:) = [जनय] गौओं को प्रादुर्भूत कीजिए तथा (योनिषु प्रजा:) = घरों में उत्तम सन्तानों को प्राप्त कराइए। २. (इह एव) = इस जीवन में ही (प्राण:) = वह सबका प्राण प्रभु (नः सख्ये अस्तु) = हमारी मित्रता में हो-हम प्रभु के सखा बन पाएँ। हे (परमेष्ठिन्) = परम स्थान में स्थित प्रभो! (तं त्वा) = उन आपको (अहम्) = मैं (आयुषा वर्चसा) = आयुष्य व वर्चस् के साथ (परिदधामि) = अपने चारों ओर धारण करता हूँ। वस्तुत: आपका धारण ही मुझे आयुष्य व वर्चस प्राप्त कराता है।
भावार्थ
प्रभु के वेदज्ञान को अपनाते हुए हम 'मनःप्रसाद, उत्तम गौओं व उत्तम प्रजाओं' को प्राप्त करें, प्रभु की मित्रता में चलें। प्रभु को चारों ओर धारण करते हुए दीर्घजीवी व वर्चस्वी बनें।
भाषार्थ
(वाचस्पते) वाणी अर्थात् शिक्षा के पति अर्थात् अध्यक्ष हे राजन्! [शिक्षा द्वारा] (नः) हम प्रजाजनों में (सौमनसम्) मन की प्रसन्नता, (च मनः) और मननशीलता हो; तथा (गोष्ठे) इन्द्रियों की स्थिति स्थान शरीर में (गाः) स्वस्थ इन्द्रियां हों, या गोशालाओं में गौएँ हों, (योनिषु) घरों में या स्त्री योनियों में (प्रजाः) सन्तानें (जनय) पैदा कर। इहैव-- (पूर्ववत् मन्त्र १७)। मन्त्र में "अहम्" पद द्वारा परमेश्वर का कथन है।
टिप्पणी
[शिक्षा द्वारा मन की प्रसन्नता तथा मन का मननशील होना चाहिये, तथा इन्द्रियों की स्वस्थता होनी चाहिये। राजा ऐसा प्रबन्ध करे कि घर-घर में दूध आदि के लिये गौए हों, और गृहस्थी संतानों से विहीन न हों। गाः; गौः = पशुः, इन्द्रियम्, सुखं किरणो, वज्रम्, चन्द्रमाः, भूमिः, वाणी, जलं वा (उणा० २।६८ महर्षि दयानन्द। योनिः गृहनाम (निघं० ३।४)]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे (वाचः पते) परमेश्वर ! राजन् ! (मनः च) हमारे मनमें (सौमनसम्) शुभ संकल्प और (नः गोष्ठे गाः) हमारी गो-शालाओं में गौवें और (योनिषु प्रजाः) स्त्रियों और गृहों में प्रजाएं और (इह एव) इस देह में भी (नः सख्ये प्राणः) हमारे मित्र-भाव में हमारा प्राण (अस्तु) रहे। हे (परमेष्ठिन्) प्रजापते ! (अहम्) मैं (तं त्वा) उस तुझको (वर्चसा आयुषा) अपने तेज और दीर्घ जीवन से अपने में (दधामि) धारण करता हूं।
टिप्पणी
(पं०) ‘पर्यहं वचसा दधातु’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Vachaspati, lord of divine speech, let our mind be noble and cheerful with good intentions and will. Let noble speech be generated in our assemblies. Let noble children be born in our families, and fertile cows be produced in our stalls and meadows. Here itself let pranic energy be favourable and friendly for us. O Lord Supreme, I, the ruler as well as the individual, dedicate myself to you with all my power and intelligence for all my life time.
Translation
O Lord of divine speech, make our mind full of friendliness; generate cows in our stall and children in our wives. May the vital breath be friendly to us just here. O observer of highest vows, you as Such, I clad with long life and lustre.
Translation
O Vachaspati ! may our minds be possessed of very nobel intentions. Please propagate cows in our stall and progeny in our homes...... Rest is like previous one.
Translation
O God, the Lord of Vedic speech, let our mind be full of noble resolves; breed kine in our stall and children in our houses. Even here may life- breath be our friend. O God, Highest of all, I worship Thee with long life and splendor !
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(सौमनसम्) शुभचिन्तकत्वम् (मनः) मननम् (च) (गोष्ठे) वाचालये (नः) अस्माकम् (गाः) वाणीः। नीतीः। (जनय) उत्पादय (योनिषु) गृहेषु (प्रजाः) पुत्रपौत्रराज्यजनान् (अहम्) मनुष्यः (दधामि) स्थापयामि। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥
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