अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 49
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
43
ब्रह्म॑णा॒ग्नी वा॑वृधा॒नौ ब्रह्म॑वृद्धौ॒ ब्रह्मा॑हुतौ। ब्रह्मे॑द्धाव॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । अ॒ग्नी इति॑ । व॒वृ॒धा॒नौ । ब्रह्म॑ऽवृध्दौ । ब्रह्म॑ऽआहुतौ । ब्रह्म॑ऽइध्दौ । अ॒ग्नी इति॑ । ई॒जा॒ते॒ इति॑ । रोहि॑तस्य । स्व॒:ऽविद॑: ॥१.४९॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणाग्नी वावृधानौ ब्रह्मवृद्धौ ब्रह्माहुतौ। ब्रह्मेद्धावग्नी ईजाते रोहितस्य स्वर्विदः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । अग्नी इति । ववृधानौ । ब्रह्मऽवृध्दौ । ब्रह्मऽआहुतौ । ब्रह्मऽइध्दौ । अग्नी इति । ईजाते इति । रोहितस्य । स्व:ऽविद: ॥१.४९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(अग्नी) दोनों अग्नि [सूर्य और चन्द्रमा] (ब्रह्मणा) वेदज्ञान द्वारा (वावृधानौ) बढ़ते हुए, (ब्रह्मवृद्धौ) अन्न से बढ़े हुए, (ब्रह्माहुतौ) जल की आहुति [ग्रहण और दान] वाले हैं। (ब्रह्मेद्धौ) धन के साथ प्रकाश किये गये (अग्नी) उन दोनों अग्नियों ने (स्वर्विदः) सुख पहुँचानेवाले (रोहितस्य) सबके उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर के लिये (ईजाते) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार] को किया है ॥४९॥
भावार्थ
ईश्वर की शक्ति से यह सूर्य और चन्द्रमा प्राणियों के लिये अन्न, वृष्टि और धन के कारण होते हैं ॥४९॥
टिप्पणी
४९−(ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अग्नी) सूर्याचन्द्रमसौ (वावृधानौ) वर्धमानौ (ब्रह्मवृद्धौ) ब्रह्माऽन्ननाम-निघ० २।७। अन्नेन प्रवृद्धौ (ब्रह्माहुतौ) ब्रह्मोदकनाम-निघ० १।१२। जलस्याहुतग्रहणदानव्यवहारो ययोस्तौ (ब्रह्मेद्धौ) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। धनेन प्रकाशितौ। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४७ ॥
विषय
'ब्रह्मवृद्धौ ब्रहोद्धौ' अग्नी
पदार्थ
१. (स्वर्विदः) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले (रोहितस्य) = तेजस्वी, सदावृद्ध प्रभु के (ब्रोम्होद्धौ) [ब्रह्म इद्धौ] = ज्ञान द्वारा दीस किये गये (अग्नी) = सूर्य व चन्द्ररूप अनि (ईजाते) = सृष्टियज्ञ को चलाते हैं। २. ये दोनों (अग्नी) = अग्नियाँ ब्रह्मणा वावृधानी-प्रभु से वेद द्वारा निरन्तर वृद्ध की जाती है। (ब्रह्मवृद्धौ) = ब्रह्म द्वारा ये वृद्ध हुई हैं। ब्रह्माहुतौ ब्रह्म द्वारा ये समन्तात् आहुत हुए हैं। प्रभु ने ही इन्हें बनाया है। प्रभु ही इनके प्रकाश को चारों ओर प्राप्त करा रहे है-प्रभु ही तो इनकी प्रभा हैं, 'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः'।
भावार्थ
सूर्य-चन्द्ररूप अग्रियों द्वारा यह सृष्टियज्ञ चल रहा है। ये दोनों अग्नियाँ प्रभु द्वारा वृद्ध की गई हैं-प्रभु ही इनके प्रकाश को चारों ओर प्राप्त करा रहे है।
भाषार्थ
(अग्नी) चन्द्रमा और सूर्य- ये दो अग्नियां (ब्रह्मणा) सर्वतो महान् परब्रह्म द्वारा (वावृधानौ) बढ़ती हुई, (ब्रह्मवृद्धौ) ब्रह्म द्वारा बढ़ी हुई, (ब्रह्माहुतौ) ब्रह्म द्वारा आहूत हुई, (ब्रह्मेद्धौ) ब्रह्म द्वारा प्रदीप्त हुई (स्वर्विदः रोहितस्य ईजाते) उपतप्त द्युलोक में विद्यमान या आनन्दाभिज्ञ, सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर के (ईजाते) संसार यज्ञ को रचा रही हैं।
टिप्पणी
[ब्रह्माहुतौ= ब्रह्म ही चन्द्रमा और सूर्य में, अग्नितत्व की आहुतियां दे रहा है]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(ब्रह्मणा) ब्रह्म वेद से (वावृधानौ) निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हुए पूर्वोक्त ‘हिम’ और ‘घ्रंस’ (ब्रह्मवृद्धौ) ब्रह्म, वेद ज्ञान से परिपुष्ट और (ब्रह्माहुतौ) ब्रह्म, वेदज्ञ विद्वान् द्वारा आहुति दिये गये (ब्रह्मेद्वौ) ब्रह्म द्वारा अतिदीप्त अग्नियों के समान (स्वर्विदः रोहितस्य) स्वः = प्रकाश स्वरूप आत्मा को प्राप्त करने वाले (रोहितस्य) मोक्षपद पर आरूढ़ आदित्य समान योगी के भी योग यज्ञ को (ईजाते) सम्पादन करते हैं।
टिप्पणी
‘ब्रह्मणाग्निः संविदानो ब्रह्मवृद्धो ब्रह्माहुतः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
The complementary fires of cold and heat, called up into emergence by Brahma, kindled by Brahma, raised by Brahma and continued by Brahma with the simultaneous chant of Brahma-Veda carry on the creative evolutionary yajna of refulgent Rohita, Lord and Spirit of existential bliss.
Translation
The two fires increasing with knowledge, augmented with knowledge, offered oblations of knowledge, and enkindled with knowledge, worship the ascendant Lord, the bestower of light (bliss).
Translation
These two fires of the sun, the celestial one being increased by Supreme being, enhanced by Supreme Being. given to people by Supreme Being and enkindled by Supreme Being are being kindled.
Translation
Both Agnis, made strong with Vedic knowledge, waxing by Vedic knowledge, adored by Vedic knowledge, enkindled by Vedic knowledge, perform sacrifice for God, the Giver of happiness.
Footnote
Agnis: Sun, Moon.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४९−(ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अग्नी) सूर्याचन्द्रमसौ (वावृधानौ) वर्धमानौ (ब्रह्मवृद्धौ) ब्रह्माऽन्ननाम-निघ० २।७। अन्नेन प्रवृद्धौ (ब्रह्माहुतौ) ब्रह्मोदकनाम-निघ० १।१२। जलस्याहुतग्रहणदानव्यवहारो ययोस्तौ (ब्रह्मेद्धौ) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। धनेन प्रकाशितौ। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४७ ॥
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