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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अग्नि छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    41

    समि॑द्धो अ॒ग्निः स॑मिधा॒नो घृ॒तवृ॑द्धो घृ॒ताहु॑तः। अ॑भी॒षाड् वि॑श्वा॒षाड॒ग्निः स॒पत्ना॑न्हन्तु॒ ये मम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्नि: । स॒म्ऽइ॒धा॒न: । घृ॒तऽवृ॑ध्द: । घृ॒तऽआ॑हुत: । अ॒भी॒षाट् । वि॒श्वा॒षाट् । अ॒ग्नि: । स॒ऽपत्ना॑न् । ह॒न्तु॒ । ये । मम॑ ॥१.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धो अग्निः समिधानो घृतवृद्धो घृताहुतः। अभीषाड् विश्वाषाडग्निः सपत्नान्हन्तु ये मम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइध्द: । अग्नि: । सम्ऽइधान: । घृतऽवृध्द: । घृतऽआहुत: । अभीषाट् । विश्वाषाट् । अग्नि: । सऽपत्नान् । हन्तु । ये । मम ॥१.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    [जैसे] (समिद्धः) प्रकाशमान किया गया और (समिधानः) प्रकाशमान होता हुआ (घृताहुतः) घी चढ़ाया गया और (घृतवृद्धः) घी से बढ़ा हुआ (अग्निः) अग्नि हो। [वैसे ही] (अभीषाट्) सब ओर से जीतनेवाला, (विश्वाषाट्) सबको हरानेवाला (अग्निः) तेजस्वी [शूर पुरुष] (सपत्नान्) वैरियों को (हन्तु) मारे, (ये) जो (मम) मेरे हैं ॥२८॥

    भावार्थ

    जैसे अग्नि घृत आदि हव्य पदार्थ से प्रज्वलित होकर रोगकारक दोष को नाश करता है, वैसे ही मनुष्य विद्या और वीरता से प्रतापी होकर शत्रुओं को नाश करे, यह ईश्वर का नियम है ॥२८॥

    टिप्पणी

    २८−(समिद्धः) प्रदीप्तः (अग्निः) होमाग्निः (समिधानः) प्रदीप्यमानः (घृतवृद्धः) घृतादिहव्येन प्रवृद्धः (घृताहुतः) घृतं हव्यद्रव्यमाहुतं दत्तं यस्मै सः (अभीषाट्) अ० १२।१।५४। सर्वतोजेता (विश्वाषाट्) अ० १२।१।५४। सर्वजेता (अग्निः) तेजस्वी शूरः (सपत्नान्) शत्रून् (हन्तु) मारयतु (ये) (मम) ॥

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    विषय

    'अभीषाड् विश्वाषाड्' अग्निः

    पदार्थ

    १. (अग्निः सम् इद्धः) = गतमन्त्र के अनुसार वेद के स्वाध्याय से वह अग्रणी प्रभु हमारे हृदयों में समिद्ध हुए हैं। (सम् इधान:) = सम्यक् दीप्त होते हुए ये प्रभु (तवृद्धः) = दोषों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति द्वारा हमारे अन्दर बढ़ते हैं, (ताहुत:) = वस्तुतः प्रभु ही ज्ञानदीसि को प्राप्त करानेवाले हैं [घृतं आहुतं येन]। २. ये प्रभु ही ज्ञान देकर (अभीषाट्) = हमारे शत्रुओं का सर्वत्र पराभव करनेवाले हैं। (विश्वाषाट्) = हमारे अन्दर प्रविष्ट हो जानेवाले कामादि शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं। इसप्रकार (अग्निः) = ये अग्नणी प्रभु ही (ये मम) = जो मेरे शत्रु हैं उन सब (सपत्नान् हन्तु) = शत्रुओं का विनाश करें।

    भावार्थ

    स्वाध्याय के द्वारा हम प्रभु के प्रकाश को हृदयों में देखने का प्रयत्न करें। दीप्स होते हुए प्रभु हमारे ज्ञान को और बढ़ाते हैं और प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं, हमें कामादि पर विजय प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करते हैं।

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    भाषार्थ

    (घृताहुतः) घृत की आहुति को प्राप्त, (घृतवृद्धः) घृत द्वारा बड़ी हुई [याज्ञियाग्नि की तरह] (अग्निः) क्षात्राग्नि (समिधानः) समिद्ध होता हुआ (समिद्धः) तथा पूर्णतया समिद्ध हुआ, (अभीषाड्) संमुख उपस्थित शत्रुओं को पराभूत करता, तथा (विश्वाषाड्) अन्य सब शत्रुओं को पराभूत करता है, (अग्निः) वह क्षात्राग्नि (सपत्नान्) शत्रुओं का (हन्तु) हनन करे, (ये मम) जो कि मेरे हैं।

    टिप्पणी

    [क्षात्राग्निः (मन्त्र २७)]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी ब्रह्ममय अग्नि इस आत्म में अब (सम्-इद्धः) खूब अच्छी प्रकार प्रदीप्त हो गया है और वह (घृतवृद्धः) घृत से बढ़ी हुई और (घृताहुतः) घृत की आहुति से प्रदीप्त अग्नि के समान (सम् इधानः) सदा अच्छी प्रकार जलता ही रहे. वही (अभीषाट्) सर्वत्र सब पदार्थों को विजय करने वाला (विश्वाषाड्) समस्त विश्व का विजय करने हारा परमेश्वर भी विजयी राजा के समान (सप-त्नान्) शत्रुओं को (ये मम) जो मेरे प्रति द्वेष बुद्धि रखते हैं उनको (हन्तु) मारे, नाश करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Let Agni, the ruler, the leading lights of life, the fire of life and passion for purity, lighted up, fed with ghrta, raised up in flames, burning and blazing challenger, all evil destroyer, throw out and destroy all those negativities that are our enemies.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    The well-kindled fire divine has béen augmented with fuel and increased with pouring of purified butter, May the conquering adorable Lord, the conqueror of all, destroy those, who are my rivals

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    Translation

    This fire enkindled, inflamed with ghee, enriched with oblations and thereby enhanced (is ablaze in the vedi of Yajna) Let the fire conquering, and empowering all, destroy them who are our internal enemies (Anger, aversion etc).

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    Translation

    Just as kindling and inflamed fire adored with butter and enhanced thereby removes disease, so may this conquering hero, conqueror of all,destroy mine enemies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(समिद्धः) प्रदीप्तः (अग्निः) होमाग्निः (समिधानः) प्रदीप्यमानः (घृतवृद्धः) घृतादिहव्येन प्रवृद्धः (घृताहुतः) घृतं हव्यद्रव्यमाहुतं दत्तं यस्मै सः (अभीषाट्) अ० १२।१।५४। सर्वतोजेता (विश्वाषाट्) अ० १२।१।५४। सर्वजेता (अग्निः) तेजस्वी शूरः (सपत्नान्) शत्रून् (हन्तु) मारयतु (ये) (मम) ॥

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