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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    ऊ॒र्ध्वो रोहि॑तो॒ अधि॒ नाके॑ अस्था॒द्विश्वा॑ रू॒पाणि॑ ज॒नय॒न्युवा॑ क॒विः। ति॒ग्मेना॒ग्निर्ज्योति॑षा॒ वि भा॑ति तृ॒तीये॑ चक्रे॒ रज॑सि प्रि॒याणि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्व: । रोहि॑त: । अधि॑ । नाके॑ । अ॒स्था॒त् । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । ज॒नय॑न् । युवा॑ । क॒वि: । ति॒ग्मेन॑ ।‍ अ॒ग्नि: । ज्योति॑षा । वि । भा॒ति॒ । तृ॒तीये॑ । च॒क्रे॒ । रज॑सि । प्रि॒याणि॑ ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वो रोहितो अधि नाके अस्थाद्विश्वा रूपाणि जनयन्युवा कविः। तिग्मेनाग्निर्ज्योतिषा वि भाति तृतीये चक्रे रजसि प्रियाणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्व: । रोहित: । अधि । नाके । अस्थात् । विश्वा । रूपाणि । जनयन् । युवा । कवि: । तिग्मेन ।‍ अग्नि: । ज्योतिषा । वि । भाति । तृतीये । चक्रे । रजसि । प्रियाणि ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (युवा) बली, (कविः) ज्ञानी (रोहितः) सबका उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (विश्वा) सब (रूपाणि) रूपों [सृष्टि के पदार्थों] को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (नाके) मोक्षसुख में (अधि) अधिकारपूर्वक (ऊर्ध्वः) ऊँचा होकर (अस्थात्) ठहरा है। (अग्निः) प्रकाशस्वरूप [परमेश्वर] (तिग्मेन) तीक्ष्ण (ज्योतिषा) ज्योति के साथ (वि) विविध प्रकार (भाति) चमकता है, उसने (तृतीये) तीसरे [रजोगुण और तमोगुण से भिन्न, सत्त्व] (रजसि) लोक में [वर्त्तमान होकर] (प्रियाणि) प्रिय वस्तुओं को (चक्रे) बनाया है ॥११॥

    भावार्थ

    जिस सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ परमेश्वर ने सब संसार को रचा है, विद्वान् लोग उसकी महिमा को प्रत्येक पदार्थ में देखकर अपनी उन्नति करते हैं ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(ऊर्ध्वः) उन्नतः (रोहितः) सर्वोत्पादकः (अधि) अधिकृत्य (नाके) मोक्षानन्दे (अस्थात्) स्थितवान् (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) सृष्टिवस्तूनि (जनयन्) उत्पादयन् (युवा) बली (कविः) मेधावी (तिग्मेन) तीव्रेण (अग्निः) ज्योतिःस्वरूपः परमेश्वरः (ज्योतिषा) तेजसा (वि) विविधम् (भाति) दीप्यते (तृतीये) रजस्तमोभ्यां भिन्ने सत्त्वगुणे (चक्रे) रचयामास (रजसि) लोके (प्रियाणि) हितकराणि वस्तूनि ॥

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    विषय

    अधि नाके अस्थात्

    पदार्थ

    १. (ऊर्ध्व:) = 'सत्त्व, रज, तम' रूपगुणवाली त्रिगुणमयी प्रकृति को धारण करता हुआ भी उससे ऊपर उठा हुआ ('भूतभृन्न च भूतस्थ:' रोहितः) = तेजस्वी, सदा वृद्ध प्रभु (नाके) = मोक्षसुख में (अधि अस्थात्) = अधिष्ठातृरूपेण वर्तमान हैं। वे प्रभु (विश्वा रूपाणि जनयन्) = सब रूपों को प्रादुर्भूत करते हैं। (युवा) = सब बुराइयों को दूर करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले (कवि:) = क्रान्तप्रज्ञ है-सृष्टि के आरम्भ में वेदज्ञान के रूप में सब सत्यविद्याओं का उपदेश करते हैं। २. वह (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (तिग्मेन ज्योतिषा) = तीव्र ज्योति से विभाति-दीस हैं-वहाँ प्रकाश-ही-प्रकाश है। 'आदित्यवरुणं तमसः परस्तात्'-अन्धकार से परे हैं। वे प्रभु ही (ततीये रजसि) = तृतीय लोक में-'तृतीये धामन्' तम व रजस् से ऊपर उठकर सत्त्व में पहुँचने पर पृथिवी व अन्तरिक्ष से ऊपर उठकर धुलोक में पहुँचने पर-पाषाणों की निष्क्रियता व वायु की चंचलता से ऊपर उठकर सूर्य की दीसि में पहुँचने पर (प्रयाणि चक्रे) = हमारे लिए सब आनन्दों को करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु मोक्ष में अधिष्ठातृरूपेण बर्तमान हैं। सब रूपों को प्रादुर्भूत करते हुए बुराइयों को हमसे दूर करके अच्छाइयों को मिलाते हुए क्रान्तप्रज्ञ वे प्रभु हैं। तीव्र ज्योति से प्रकाशमान वे प्रभु ही मोक्षसुखों को प्राप्त करानेवाले हैं।

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    भाषार्थ

    (ऊर्ध्वः) संसार की रचना से उपर उठा हुआ (रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर (नाके अधि) मोक्ष स्वरूप में (अस्थात्) अधिष्ठित हुआ है। (विश्वा रूपाणि) सब रूपों, आकृतियों को (जनयन्) जन्म देता हुआ (युवा कविः) सदा युवा तथा वेदकाव्यों का कवि, तथा (अग्निः) अग्निवत् प्रकाशमान परमेश्वर (तिग्मेन ज्योतिषा) उग्र ज्योति के साथ (विभाति) चमकता है। (तृतीये रजसि) तीसरे द्युलोक में (प्रियाणि) प्रिय लगने वाले नक्षत्रों और तारागणों को (चक्रे) उस ने निर्मित किया है।

    टिप्पणी

    [ऊर्ध्वः = "त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः" (यजु० ३१।४)। युवा= नित्य पदार्थ निज शक्तियों की दृष्टि से सदा युवा होते हैं, अथवा युवा= यु मिश्रणामिश्रणयोः, संसार की उत्पत्ति में घटकतत्त्वों का संयोग विभाग करने वाला परमेश्वर]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Rohita, lord supreme over all, abides in the highest state of bliss in existence. He, ever young beyond age, omniscient poetic creator, creates and shapes all forms of the universe. With fiery splendour of divinity, he shines in the highest heaven of Satya and Sattva beyond darkness and opacity, and creates, shapes and moves the dearest and most glorious objects in nature and humanity.

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    Translation

    The ascendant Lord, young and wise, stays high up in the sorrowless world, generating all the firms, The adorable Lord shines out with intense glow. In the third midspace, He creates desirable things (for us).

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    Translation

    Ever-young intelligent Rohit, the All-creation God, creating various form and figures is present in his high blessedness. Fire refulgent with its sharp lustre shines. In the third realm (heaven) it does very good works.

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    Translation

    The Mighty, Wise God, creating all the objects of the world lives in extreme delight perceived in salvation. He is Refulgent in His heightened lustre. He has brought us joy and gladness in the third realm.

    Footnote

    Third realm: The Satwik (pure) stage, higher than the Tamsik and Rajsik stages of ignorance and passion. Man enjoys happiness when his mind is pure, free from darkness and passion.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(ऊर्ध्वः) उन्नतः (रोहितः) सर्वोत्पादकः (अधि) अधिकृत्य (नाके) मोक्षानन्दे (अस्थात्) स्थितवान् (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) सृष्टिवस्तूनि (जनयन्) उत्पादयन् (युवा) बली (कविः) मेधावी (तिग्मेन) तीव्रेण (अग्निः) ज्योतिःस्वरूपः परमेश्वरः (ज्योतिषा) तेजसा (वि) विविधम् (भाति) दीप्यते (तृतीये) रजस्तमोभ्यां भिन्ने सत्त्वगुणे (चक्रे) रचयामास (रजसि) लोके (प्रियाणि) हितकराणि वस्तूनि ॥

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