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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 51
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    48

    यं वातः॑ परि॒शुम्भ॑ति॒ यं वेन्द्रो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। ब्रह्मे॑द्धाव॒ग्नी ई॑जाते॒ रोहि॑तस्य स्व॒र्विदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । वात॑: । प॒रि॒ऽशुम्भ॑ति । यम् । वा॒ । इन्द्र॑: । ब्रह्म॑ण: । पति॑: । ब्रह्म॑ऽइध्दौ ।अ॒ग्नी इति॑ । ई॒जा॒ते॒‍ इति॑ । रोहि॑तस्य । स्व॒:ऽविद॑: ॥१.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं वातः परिशुम्भति यं वेन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः। ब्रह्मेद्धावग्नी ईजाते रोहितस्य स्वर्विदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । वात: । परिऽशुम्भति । यम् । वा । इन्द्र: । ब्रह्मण: । पति: । ब्रह्मऽइध्दौ ।अग्नी इति । ईजाते‍ इति । रोहितस्य । स्व:ऽविद: ॥१.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 51
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिस [परमेश्वर] को (वातः) पवन और (यम्) जिसको (वा) निश्चय करके (ब्रह्मणः) अन्न का (पतिः) रक्षक (इन्द्रः) मेघ (परि शुम्भति) सब ओर से प्रकाशित करता है। (ब्रह्मेद्धौ) धन के साथ प्रकाशित किये गये... मन्त्र ४९ ॥५१॥

    भावार्थ

    आदि कारण परमात्मा के उपकारों को कार्यरूप पवन, मेघ, सूर्य, चन्द्र आदि उपकारी पदार्थों द्वारा साक्षात् करके विद्वान् लोग उन्नति करते हैं ॥५१॥

    टिप्पणी

    ५१−(यम्) परमात्मानम् (वातः) पवनः (परिशुम्भति) सर्वतो दीपयति (यम्) (वा) अवधारणे (इन्द्रः) मेघः (ब्रह्मणः) अन्नस्य (पतिः) रक्षकः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४९ ॥

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    विषय

    वात: इन्द्रः ब्रह्मणस्पतिः

    पदार्थ

    १. (यम्) = जिस चन्द्र-[आह्लाद]-रूप अग्नि को (वात:) = वायु की भाँति निरन्तर गतिशील पुरुष (परिशुम्भति) = अपने जीवन में अलंकृत करता है। (यं वा) = तथा जिस ज्ञान-सूर्यरूप अग्नि को (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (ब्रह्मणस्पतिः) = वेदज्ञान का पति होता हुआ अपने में सुशोभित करता है। ये दोनों कर्म व ज्ञानरूप (अग्री) = अग्नियाँ (ब्रह्मेद्धौ) = उस प्रभु द्वारा समिद्ध की जाकर (रोहितस्य स्वर्विदः) = सदावद्ध व सुख प्राप्त करानेवाले प्रभु के यज्ञ को (ईजाते) = सम्पन्न करती हैं। सारे ब्रह्माण्ड में यह सृष्टि-यज्ञ सूर्य व चन्द्र द्वारा चल रहा है। यही जीवन-यज्ञ इस पिण्ड में ज्ञान व कर्मरूप अग्नियों द्वारा चलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम वायु के समान निरन्तर क्रियाशील बनकर हृदय में आनन्द के चन्द्र को उदित करें। जितेन्द्रिय व ज्ञानी बनकर मस्तिष्करूप झुलोक में ज्ञानसूर्य को उदित करें। इसप्रकार प्रभु से प्रदत्त इन ज्ञान व कर्मरूप अग्रियों से हमारा जीवन-यज्ञ सम्प्रवृत्त हो।

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    भाषार्थ

    (यम्) जिस चन्द्राग्नि को (वातः) वायु नामक ब्रह्म (परिशुम्भति) शोभायुक्त करता है, (वा) तथा (यम्) जिस सूर्याग्नि को (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् (ब्रह्मणस्पतिः) वेदपति सत्यब्रह्म (५०) शोभित करता है.. (ब्रह्मेद्धौ, अग्नी) ब्रह्म द्वारा प्रदीप्त वे दो अग्नियां (स्वर्विदः रोहितस्य) स्वर्विद् रोहित के (४७) (ईजाते) संसार यज्ञ को रचाती हैं। वातः या वायु: "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः" (यजु० ३२।१)

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यं) जिस मित्र को (वातः) प्राण वायु (परि शुम्भति) अलंकृत करता है और (यं) जिस अपान को (इन्द्रः ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्म-वेद, अन्न और प्राण का पालक इन्द्र साक्षात् जीवात्मा सुशोभित करता है वे दोनों हिम और ‘घ्रंस’ (ब्रह्मेद्वौ) ब्रह्म, वेद द्वारा प्रज्वलित अग्नियों के समान स्वयं प्रदीप्त होकर (स्वर्विदः) स्वः प्रकाशस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होने वाले (रोहितस्य) मोक्षपद में आरूढ़ योगी के देह में (ईजाते) यज्ञ का सम्पादन करते हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘यमिन्द्रो’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    That auspicious energy of cool which Vata, the wind, beatifies and empowers, and that fire which Indra, the sun, Brahmanaspati, lord of might, light and truth emblazes, these two fires, lighted and raised by Brahma, carry on the yajna of Rohita, lord and spirit of existential bliss and beauty.

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    Translation

    Whom the wind purifies all around, whom the resplendent Lord and the Lord of knowledge (purify), two fires, enkindled with knowledge, worship that ascendant Lord, the bestower of light.

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    Translation

    This sun is that whom wind, electricity and cloud decorate (with power etc). Rest is like previous one.

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    Translation

    Whom the Wind exalts, Whom the cloud, the lord of corn glorifies, for Him, the Giver of happiness both Sun and Moon, kindled by Vedic knowledge perform sacrifice.

    Footnote

    Whom, Him refer to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५१−(यम्) परमात्मानम् (वातः) पवनः (परिशुम्भति) सर्वतो दीपयति (यम्) (वा) अवधारणे (इन्द्रः) मेघः (ब्रह्मणः) अन्नस्य (पतिः) रक्षकः। अन्यत् पूर्ववत्-म० ४९ ॥

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