अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - विराण्महाबृहती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
53
आ॒रोह॒न्द्याम॒मृतः॒ प्राव॑ मे॒ वचः॑। उत्त्वा॑ य॒ज्ञा ब्रह्म॑पूता वहन्त्यध्व॒गतो॒ हर॑यस्त्वा वहन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽरोह॑न् । द्याम् । अ॒मृत॑: । प्र । अ॒व॒ । मे॒ । वच॑: । उत् । त्वा॒ । य॒ज्ञा: । ब्रह्म॑ऽपूता: । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒ऽगत॑: । हर॑य: । त्वा॒ । व॒ह॒न्ति॒ ॥१.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
आरोहन्द्याममृतः प्राव मे वचः। उत्त्वा यज्ञा ब्रह्मपूता वहन्त्यध्वगतो हरयस्त्वा वहन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठआऽरोहन् । द्याम् । अमृत: । प्र । अव । मे । वच: । उत् । त्वा । यज्ञा: । ब्रह्मऽपूता: । वहन्ति । अध्वऽगत: । हरय: । त्वा । वहन्ति ॥१.४३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(द्याम्) प्रकाश के ऊपर (आरोहन्) चढ़ता हुआ (अमृतः) अमर तू (मे वचः) मेरे वचन को (प्र) भले प्रकार (अव) सुन। [हे परमेश्वर !] (त्वा) तुझको (ब्रह्मपूताः) ब्रह्माओं [वेदवेत्ताओं] द्वारा शुद्ध किये गये (यज्ञाः) यज्ञ [संगतियोग्य व्यवहार] (उत्) उत्तमता से (वहन्ति) प्राप्त होते हैं, (अध्वगतः) [वेदविहित] मार्ग पर चलनेवाले (हरयः) मनुष्य (त्वा) तुझको (वहन्ति) पाते हैं ॥४३॥
भावार्थ
योगी जन प्रकाशस्वरूप जगदीश्वर का ध्यान करके तपश्चरण के साथ उसे प्राप्त करके आनन्द पाते हैं ॥४३॥इस मन्त्र का उत्तर भाग ऊपर मन्त्र ३६ में आ चुका है ॥
टिप्पणी
४३−(आरोहन्) अधितिष्ठन् (द्याम्) गमेर्डोः। उ० २।६७। द्युत दीप्तौ, यद्वा द्यु अभिगमने−डोस्। दीप्तिम् (अमृतः) अमरः। अविनाशी परमेश्वरः (प्र) प्रकर्षेण (अव) अव रक्षणश्रवणादिषु। शृणु (मे) मम (वचः) वचनम्। अन्यत् पूर्ववत् म० ३६ ॥
विषय
प्रकाशमय नीरोम जीवन
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि (द्याम् आरोहन) = मस्तिष्करूप द्युलोक में आरोहन करता हुआ (अ-मृतः) = नीरोग बनता हुआ तू मे (वचः प्राव) = मुझसे दी गई वेदवाणी का प्रकर्षेण रक्षण कर। यह वेदवाणी ही वस्तुत: प्रकाशमय व नीरोग जीवनवाला बनाएगी। २. (त्वा) = तुझे (ब्रह्मपूता:) = वेदवाणी के उच्चारण से पवित्र किये गये (यज्ञाः) = यज्ञ (उद् वहन्ति) = उत्कृष्ट स्थिति में प्राप्त कराते हैं। (अध्यगतः हरय:) = मार्ग पर चलनेवाले ये इन्द्रियाश्व (त्वा वहन्ति) = तुझे लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले होते हैं।
भावार्थ
वेदवाणी का नियम से स्वाध्याय करते हुए हम प्रकाश व नीरोगता को प्राप्त करें-दीप्त मस्तिष्कवाले व नीरोग शरीरवाले बनें । मन्त्रों द्वारा हम यज्ञों को करनेवाले हों तथा हमारे इन्द्रियाश्व सदा मार्ग पर आगे बढ़ते हुए हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाएँ।
भाषार्थ
हे परमेश्वर ! (अमृतः) अमर तू (द्याम्, आरोहन्) सिर या सिर में स्थित सहस्रार-चक्र पर आरोहण करता हुआ (मे वचः) मेरे वचन की (प्र अव) रक्षा कर, या इसे सुन कि (ब्रह्मपूताः) मन्त्रों द्वारा पवित्र हुए (यज्ञाः) यज्ञकर्म, (त्वा) तुझे, (उद् वहन्ति) ऊपर की ओर, अर्थात् सहस्रार चक्र की ओर ले जाते हैं। (अध्वगतः) तू इस मार्ग द्वारा प्राप्त होता है। (हरयः) प्रत्याहारसम्पन्न योगिजन (त्वा) तुझे (वहन्ति) सहस्रार चक्र तक-ले जाते हैं।
टिप्पणी
[द्याम्= "शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३), अध्यात्म में द्यौः = शिरः सिर। अव= रक्षणे, श्रवणे (भ्वादि)। ब्रह्मपूताः यज्ञाः= मन्त्रों के अर्थो और अभिप्रायों के अनुरूप किये गए यज्ञ-कर्म। अध्वगतः= प्रथमैकवचन, अथवा "अध्वगत् + जस्= प्रथमा बहुवचन। इस स्थिति में "मध्यगतः" पद हरयः का विशेषण होगा, कि ऐसे यज्ञमार्ग के अनुगामी योगिजन। हरयः मनुष्यनाम (निघं० २।३)]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे परमात्मन् ! तू (द्याम्) द्यौः प्रकाशमय मोक्षलोक को (आरोहन्) प्राप्त करता हुआ (अमृतः) सदा अमृत स्वरूप तू (मे वचः) मेरी प्रार्थना रूपवाणी को (प्र अव) उत्तम रीति से पूर्ण कर। (त्वा) तुझ को (ब्रह्मपूताः) वेद मन्त्रों से पवित्र (यज्ञाः) समस्त यज्ञ् (उद् वहन्ति) उत्कृष्ट रूप से धारण करते हैं। अथवा (ब्रह्मपूताः यज्ञाः) ब्रह्मध्यान से पवित्र यज्ञ अर्थात् आत्मागण तुझे (वहन्ति) प्राप्त करते हैं और (अध्वगतः) मोक्ष मार्ग में जाने वाले (हरयः) मुक्त जीव भी (त्वा वहन्ति) तुझे प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी
‘ब्रह्मपूता वहन्ति घृतं पिबन्तम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Lord Immortal and Eternal, rising and refulgent in the heavenly regions of light, may, I pray, listen, honour and justify my words of prayer which, O Lord, these yajnic performances sanctified by Vedic hymns carry to you as rays of the sun on their destined course conduct the light to the world.
Translation
Ascending to heaven, may you, the immortal one, listen favourable to my prayer. The sacrifices, purified with knowledge, carry you upwards; the coursers, always on the road carry you.
Translation
O Immortal Eternal Divinity ! Thou rising above and beyond the heaven y realm save my prayer and speech. The Yajnas purified by the bed Mantras spreade Thy glory. The men or knowledge, who are on their path (to seek thee) and attain Thee.
Translation
O Immortal God, full of refulgence, listen to my supplication. The sacrifices sanctified by Vedic scholars exalt Thee. Followers of the teachings of the Vedas realise Thee !
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४३−(आरोहन्) अधितिष्ठन् (द्याम्) गमेर्डोः। उ० २।६७। द्युत दीप्तौ, यद्वा द्यु अभिगमने−डोस्। दीप्तिम् (अमृतः) अमरः। अविनाशी परमेश्वरः (प्र) प्रकर्षेण (अव) अव रक्षणश्रवणादिषु। शृणु (मे) मम (वचः) वचनम्। अन्यत् पूर्ववत् म० ३६ ॥
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