अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 41
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
49
अ॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण प॒दा व॒त्सं बिभ्र॑ती॒ गौरुद॑स्थात्। सा क॒द्रीची॒ कं स्वि॒दर्धं॒ परा॑गा॒त्क्व स्वित्सूते न॒हि यू॒थे अ॒स्मिन् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व: । परे॑ण । प॒र: । ए॒ना। अव॑रेण । प॒दा । व॒त्सम् । बिभ्र॑ती । गौ: । उत् । अ॒स्था॒त् । सा । क॒द्रीची॑ । कम् । स्वि॒त् । अर्ध॑म् । परा॑ । अ॒गा॒त् । क्व᳡। स्वि॒त् । सू॒ते॒ । न॒हि । यू॒थे । अ॒स्मिन् ॥१.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
अवः परेण पर एनावरेण पदा वत्सं बिभ्रती गौरुदस्थात्। सा कद्रीची कं स्विदर्धं परागात्क्व स्वित्सूते नहि यूथे अस्मिन् ॥
स्वर रहित पद पाठअव: । परेण । पर: । एना। अवरेण । पदा । वत्सम् । बिभ्रती । गौ: । उत् । अस्थात् । सा । कद्रीची । कम् । स्वित् । अर्धम् । परा । अगात् । क्व। स्वित् । सूते । नहि । यूथे । अस्मिन् ॥१.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(परेण) दूर स्थान से (अवः) इधर और (एना) इस (अवरेण) अवर [समीप स्थान] से (परः) परे [दूर वर्तमान] (वत्सम्) सबके निवास देनेवाले वा उपदेश करनेवाले [परमेश्वर] को (पदा) पद [अधिकार] के साथ (बिभ्रती) धारण करती हुई (गौः) वेदवाणी (उत् अस्थात्) ऊँची उठी है। (सा) वह [वेदवाणी] (कद्रीची) किस ओर चलती हुई, (कं स्वित्) कौन से (अर्धम्) ऋद्धिवाले परमेश्वर को (परा) पराक्रम से (अगात्) पहुँची है, (क्व स्वित्) कहाँ पर (सूते) उत्पन्न होती है, (अस्मिन्) इस [देहधारी] (यूथे) समूह में (नहि) नहीं [उत्पन्न होती है] ॥४१॥
भावार्थ
विद्वान् लोग परमेश्वर के सर्वव्यापकता आदि गुणों को विचारते हुए अपौरुषेय वेदवाणी को उसके ज्ञान का आधार समझ कर उसके विषय में जो प्रश्न करें, उसका उत्तर आगे के मन्त्र में है ॥४१॥यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० ९।९।१७। और ऋग्वेद में भी कुछ भेद से है-म० १।१६४।१७ ॥
टिप्पणी
४१-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ९।९।१७। (अवः) अवस्तात्। समीपदेशे (परेण) दूरदेशेन (परः) परस्तात्। दूरदेशे (एना) एनेन। अनेन (अवरेण) समीपस्थेन (पदा) पदेन। अधिकारेण (वत्सम्) वस निवासे, वद व्यक्तायां वाचि-स प्रत्ययः। सर्वनिवासकम्। सर्वोपदेशकम् (बिभ्रती) धरन्ती (गौः) वेदवाणी (उत्) उत्कर्षेण (अस्थात्) स्थितवती (सा) वेदवाणी (कद्रीची) क्व गच्छन्ती (कं स्वित्) (अर्धम्) ऋधु वृद्धौ-घञ्। वृद्धिशीलं परमेश्वरम् (परा) पराक्रमेण (अगात्) अगमत् (क्व) कुत्र (स्वित्) (सूते) सूयते। उत्पद्यते (नहि) निषेधे (यूथे) समूहे (अस्मिन्) ॥
विषय
प्रकृतिविद्या आत्मविद्या
पदार्थ
१. अपराविद्या 'अव:' है, तो पराविद्या 'पर:' है। (अवः परेण) = अपराविद्या को पराविद्या के साथ तथा (पर:) = पराविद्या को (एना अवरेण) = इस अपराविद्या के साथ (पदा) = अपने पदों से शब्दों से (बिभ्रती) = धारण करती हुई (गौ:) = यह वेदवाणी (वत्सम्) = [वदति] उच्चारण करनेवाले इस जीवरूप वत्स को (उत् अस्थात्) = उन्नत करती है [उत्थापयति]। अकेली प्रकृतिविद्या अन्धकार में ले-जाती है, तो अकेली आत्मविद्या घोर अन्धकार में प्रास कराती है। यह वेदवाणी दोनों का मेल करती हुई प्रकृतिविद्या से हमें मृत्यु से तैराती है तथा आत्मविद्या से अमृतत्व को प्राप्त कराती है। प्रकृतिविद्या से अभ्युदय को सिद्ध करती है तो आत्मविद्या से निःश्रेयस को। २. इसप्रकार (सा) = वह वेदवाणी (कद्रीची) = [कौ अञ्चति] पृथिवी पर गति करती हुई (कंस्वित्) = कितने (महान् अर्धम्) = सर्वोच्च स्थान को (परागात्) = सुदुर प्राप्त करती है। अपने बाह्य अर्थों से यह प्रकृति का ज्ञान देती हुई अन्तर अर्थों से प्रभु का साक्षात्कार कराती है। इसप्रकार प्रभु-दर्शन कराती हुई यह वेदवाणी (क्वस्वित् सूते) = भला जन्म कहाँ देती है? यह मुक्ति की स्थिति को प्राप्त कराके जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठा देती है। मुक्ति न भी प्राप्त हो तो भी नहि यूथे अस्मिन्-सामान्य लोकसमूह में तो जन्म देती ही नहीं, 'शचीनां श्रीमतां गेहे', अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम' पवित्र श्रीमानों व योगियों के कुल में यह हमें जन्म प्राप्त कराती है. तत्र तं यद्धिसंयोग लभते पौर्वदेहिकम्' वहाँ उत्तम बुद्धिसंयोग को प्राप्त करके हम मुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ते है।
भावार्थ
वेदवाणी अपरा व पराविद्या का समन्वय करके हमें मृत्यु से ऊपर उठाकर अमृतत्व प्राप्त कराती है। यह प्रकृतिविद्या द्वारा अभ्युदय में गति कराती हुई आत्मविद्या से मोक्ष में पहुँचाती है। यह हमें जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठाती है अथवा योगियों के प्रशस्त कुल में ही जन्म देती है।
भाषार्थ
(परेण पदा) परब्रह्म प्रतिपादक पद समूह द्वारा (अवः) अवर-ब्रह्मरूपी (वत्सम्) वत्स को, तथा (एना अवरेण) इस अवरब्रह्मप्रतिपादक पद समूह द्वारा (परः) पर ब्रह्मरूपी वत्स को (बिभ्रती) [निज वर्णन द्वारा] परिपुष्ट करती हुई (गौः) वेदवाणी (उद् अस्थात्) उठी है। (सा) वह वेदवाणी (कद्रीची) कहां से आती, (कस्वित्) और किस (अर्धम्) ऋद्धि-सम्पन्न तत्व की ओर (परागात्) परे चली जाती है ? | यह वेदवाणी रूपी गौ (क्वस्वित) 'किस' में (सूते) निज वत्स को जन्म देती है ?। परन्तु वह (अस्मिन्) इस (यूथे) मानुष संघ में (नहि) निश्चय से नहीं 'निजवत्स को जन्म देती।
टिप्पणी
[मन्त्र कूट है। अतः सम्भावित अर्थ किया है। मन्त्र में पराविद्या और अवरा विद्या की दृष्टि से परब्रह्म और अवरब्रह्म अर्थ किया है। बृहदा० उप० में "द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यं च॥ " (अध्याय २, ब्राह्मण ३ कण्डिका १-३) में जगत् के मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्ष्म) स्वरूपों को ब्रह्म के दो रूप कहे हैं, परन्तु ब्रह्म इन दोनों रूपों से पृथक् अरूप अर्थात् आत्मस्वरूप है।" मन्त्रनिष्ठ पदसमूह परब्रह्म का वर्णन करते हुए भी, उस के अवर रूप अर्थात उस की प्राकृतिक कृतियों द्वारा उसका वर्णन करते हैं, और मन्त्र पद जब केवल प्राकृतिक कृतियों का वर्णन करते है तब भी उन में कर्तृत्वरूप में अनुस्यूत-ब्रह्म१ का भी परम्परया वर्णन अभिप्रेत होता है। इन मन्त्र पदों द्वारा ब्रह्म का स्वरूप जाना जाता है, अतः गौ अर्थात् वेद वाणी को ब्रह्म की माता तथा ब्रह्म को वेदवाणी का वत्स कहा है, (देखो मन्त्र ३३)। यह गौ, अर्थात् वेदवाणी कहां से आती और किस की ओर चली जाती है,-इस सम्बन्ध में कहा है कि “अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम्। वदन्तीर्यत्र गच्छन्ति तदाहुर्ब्राह्मणं महत् ॥" (अथर्व० १०।८।३३)। इस मन्त्र में दर्शाया है कि "अपूर्वब्रह्म द्वारा वेदवाणियां प्रेषित होती हैं, और उसी की ओर चली जाती हैं। वह वेदवाणी किसी ही समाधिस्थ व्यक्ति में- वेदवाणी के जप और तदनुरूप जीवन द्वारा-निज वत्स रूपी ब्रह्म को प्रकट करती है, सर्व साधारण मानुष यूथ में नहीं]।[१. बृहदारण्यक उपनिषद् में स्थूलजगत पृथिव्यादि, और सूक्ष्मजगत् वायु अन्तरिक्ष आदि को, मूर्त्त और अमूर्त्त कहा है। ये दोनों ब्रह्म के रूप है। परन्तु ब्रह्म जो कि आत्मस्वरूप से इन में व्याप्त है, वह अरूप है। जैसे कि स्थूलशरीर और सूक्ष्मशरीर मूर्त्त और अमूर्त्त, जीवात्मा के दो रूप है, परन्तु इन में निजशक्ति द्वारा व्याप्त जीवात्मा अरूप है। मूर्त्त और अमूर्त्त जगत् अपर ब्रह्म हैं, और अरूप ब्रह्म आत्मस्वरूप में इन दोनों से भिन्न है, वह परब्रह्म है। तथा जैसे कि देवदत्त, शरीर की दृष्टि से अपर-देवदत्त है, और जीवात्मदृष्टि से पर-देवदत्त। शरीर और जीवात्मा, इन दोनों के मेल का ही नाम है देवदत्त।]
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(गौः वत्सम्) गौ जिस प्रकार अपने (पदा) चरण से (वत्सं बिभ्रती) ‘वत्स’ बछड़े को धारण करती हुई उसको अपना रसपान कराती है उसी प्रकार (परेण अवः) परम पद मोक्ष से या दूरसे दूर लोक से (अवः) समीप से समीपतम स्थान तक और (एना अवरेण परः) इस समीपतम स्थान से अतिदूर प्रदेश तक व्यापक (वत्सं) बसनेहारे संसार या जीव लोक को (पदा) अपने ज्ञान या व्यापक सामर्थ्य से (बिभ्रती) धारण करती हुई (गौः) वह परमेश्वरी शक्तिरूप कामधेनु (उद् अस्थात्) खड़ी है। (सा) वह परम शक्ति (कदृीची) किस प्रकार की है ? (कं स्विद् अर्धम्) किस महान् समृद्ध परम पुरुष में (परा अगात्) आश्रित है ? और (क स्वित्) वह कहां, किस आश्रय पर (सूते) सृष्टि उत्पन्न करती है (नहि अस्मिन् यूथे) वह ‘गौ’ परमेश्वरी शक्तिरूप कामधेनु इस सामान्य गोयूथ अर्थात् विकाररूप महदादि में से नहीं है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Bearing this lower, tangible form of existential reality by that higher intangible presence of essential Reality by immanence, and bearing that higher, intangible presence of essential Reality by this lower, tangible form of existential reality by reflection, the Gau (‘Cow’, Prakrti, Divine Speech) yet rises above the expressive medium of form. Where from does it come? To which self-sufficient, self-existent presence and power does it retire? Where at all in the created world of existence does it abide? Not, of course, in the multitude of humanity. (Shvetashvatara Upanishad (1,7) describes the ultimate Reality as Brahma which comprises a threefold self-existent trinity of Ishvara, jiva and Prakrti. Brhadaranyaka Upanishad (2, 3,1) describes the existential version of Brahma as twofold: Murtta (con¬ crete), and Amurtta (abstract). The existential Tapas (acti-vity) of Brahma is articulated in Rgveda, 10, 190, 1-3. The existential Tapas starts with divine self- awareness: T am Brahma’ (Brhadaranyaka Upanishad, 1, 4, 10). It moves to thought and desire with the divine intention, Sankalpa, to create the many forms of existence (Ibid. 1, 4, 17). The existential extentional activity then is: awareness, thought, and form. Thought is abstract (Amurtta), and form is concrete (Murtta). The Amurtta-and-Murtta expresses itself through two media: Prakrti and Speech. The concrete prakrtic form is the universe, the tangible speech form is Veda. Prakrti bears this universe by the self-conscious presence of That Brahma through Its immanence; and it bears that Brahma by this universe through Its reflection in the universe. So the concrete, tangible, universe is a reflection of Brahma, and Brahma is the abstract Spirit of the universe. Prakrti is the medium in both cases, and still Prakrti transcends the universe, its concrete mode, just as Brahma transcends its immanence as well as its reflection in the universe. Similarly speech is the medium of divine Brahma-awareness, and Veda is the articulation, in speech form, of that awareness. Speech is the medium in both cases, of awareness and of the articulation. And still Speech transcends the Veda, its tangible form, as awareness transcends the expression in words and Brahma transcends Its immanence and reflection in the universe. For futher thought, deep reflection on Jagad Brahma and Shabda-Brahma is suggested.)
Translation
Below the distant (para), thus beyond the lower, bearing her calf with her foot, the cow hath stood up; witherwards, to what quarter (ardha) hath she forsooth gone away ? Where giveth she birth ? For (it is) not in this herd. (Also Av IX.9.17)
Translation
This vaidic speech, from upper realm and from the lower ones bearing the medium of vital air and internal heat through the words spreads out. Where does it come ? (If comes from Prajapati, the Lord of the universe). To which magnificent place does it go ? (This magnificent place is the Ka, All bIassed Lord of the universe to u hone it goes). Whence from does it spring ? (This emerges revealed from the know- ledge of the Lord of universe) This does not exist in the multitude of the worldly people.
Translation
This Vedic speech hath risen, preserving with its knowledge God, the Mighty Preacher, Who pervades from distance the near places, and from near the distant ones. What kind of speech is that? What Prosperous God does it resort to ? Wherefrom does it take its birth? Certainly not from this human agency.
Footnote
See Rig, 1-164-17, and Atharva, 9-9-17. The Vedas are revealed and not man-made.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ९।९।१७। (अवः) अवस्तात्। समीपदेशे (परेण) दूरदेशेन (परः) परस्तात्। दूरदेशे (एना) एनेन। अनेन (अवरेण) समीपस्थेन (पदा) पदेन। अधिकारेण (वत्सम्) वस निवासे, वद व्यक्तायां वाचि-स प्रत्ययः। सर्वनिवासकम्। सर्वोपदेशकम् (बिभ्रती) धरन्ती (गौः) वेदवाणी (उत्) उत्कर्षेण (अस्थात्) स्थितवती (सा) वेदवाणी (कद्रीची) क्व गच्छन्ती (कं स्वित्) (अर्धम्) ऋधु वृद्धौ-घञ्। वृद्धिशीलं परमेश्वरम् (परा) पराक्रमेण (अगात्) अगमत् (क्व) कुत्र (स्वित्) (सूते) सूयते। उत्पद्यते (नहि) निषेधे (यूथे) समूहे (अस्मिन्) ॥
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