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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - पञ्चपदा परशाक्वराभुरिक्ककुम्मत्यतिजगती सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    46

    वाच॑स्पत ऋ॒तवः॒ पञ्च॒ ये नौ॑ वैश्वकर्म॒णाः परि॒ ये सं॑बभू॒वुः। इ॒हैव प्रा॒णः स॒ख्ये नो॑ अस्तु॒ तं त्वा॑ परमेष्ठि॒न्परि॒ रोहि॑त॒ आयु॑षा॒ वर्च॑सा दधातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒ते॒ । ऋ॒तव॑: । पञ्च॑ । ये । नौ॒ । वै॒श्व॒ऽक॒र्म॒णा । परि॑ । ये । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । परि॑। रोहि॑त: । आयु॑षा । वर्च॑सा । द॒धा॒तु॒ ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचस्पत ऋतवः पञ्च ये नौ वैश्वकर्मणाः परि ये संबभूवुः। इहैव प्राणः सख्ये नो अस्तु तं त्वा परमेष्ठिन्परि रोहित आयुषा वर्चसा दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पते । ऋतव: । पञ्च । ये । नौ । वैश्वऽकर्मणा । परि । ये । सम्ऽबभूवु: । परि। रोहित: । आयुषा । वर्चसा । दधातु ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वाचः पते) हे वेदवाणी के स्वामी [परमेश्वर !] (ये ये) जो ही (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश पाँच तत्त्वों से सम्बन्धवाले वसन्त आदि छह] (ऋतवः) ऋतुएँ (नौ) हम दोनों [स्त्री-पुरुष] के लिये (वैश्वकर्मणाः) सब कर्मों के हितकारी (परि) सब ओर से (संबभूवुः) प्राप्त हुए हैं। (इह एव) यहाँ ही [इसी मनुष्यजन्म में] (प्राणः) प्राण [जीवनवायु] (नः) हमारी (सख्ये) मित्रता में (अस्तु) होवे, (परमेष्ठिन्) हे बड़े ऊँचे पदवाले [परमेश्वर !] (तम् त्वा) उस तुझको (रोहितः) उत्पन्न हुआ [यह मनुष्य] (आयुषा) आयु के साथ और (वर्चसा) प्रताप के साथ (परि) सब ओर से (दधातु) धारण करे ॥१८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वसन्त आदि छह ऋतुओं को पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों के साथ उपयोगी बनाते हैं, वे परमात्मा के गुणों को जानकर अपने जीवनभर स्वस्थ और प्रतापी रह कर उन्नति करते हैं ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−स्त्रीपुरुषाभ्याम् (वैश्वकर्मणाः) विश्वकर्मन्-अण्। सर्वकर्मभ्यो हिताः। (परि) सर्वतः (सम्बभूवुः) प्राप्ता बभूवुः (रोहितः) म० १। रुह प्रादुर्भावे-इतन्। उत्पन्नो मनुष्यः। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥

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    विषय

    ऋतवः वैश्वकर्मणाः

    पदार्थ

    १. हे (वाचस्पते) = वेदज्ञान के स्वामिन् प्रभो! ये (पञ्च ऋतवः) = ['पञ्चतव: हेमन्तशिशिरयोः समासेन'-ऐ ब्रा०'] जो पाँच ऋतुएँ हैं, वे नौ-हमारे लिए (वैश्वकर्मणा:) = सब ऋतुओं के अनुकूल कर्मों की साधक हों। ये ऋतुएँ वे हों (ये) = जोकि [नौ] (परिसंम्बभूवः) = हमारे चारों ओर सम्यक् रूप में होती हैं। ऋतुओं का विपर्यय हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक न हो। २. इसप्रकार (इह एव) = इस जीवन में ही (प्राण:) = वह प्राणों-का-प्राण प्रभु [स उ प्राणस्य प्राण:] (नः सख्ये अस्तु) = हमारी मित्रता में हो। हम सदा प्रभु के सखा बन पाएँ। हे परमेष्ठिन्!-परम स्थान में स्थित प्रभो! (तं त्वा) = उन आपको (रोहित:) = तेजस्वी होता हुआ यह उपासक (आयुषा वर्चसा) = दीर्घजीवन व वर्चस् के साथ (परिदधातु) = अपने चारों ओर धारण करे। आपको चारों ओर अनुभव करता हुआ अपने को सुरक्षित जानने से निर्भय हो।

    भावार्थ

    सब ऋतुएँ हमारे अनुकूल हों। हम सब कौ को ऋतुओं के अनुसार करनेवाले हों। प्रभु की मित्रता में हम निर्भय हों।

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    भाषार्थ

    (वाचस्पते) हे वाणी अर्थात् शिक्षा के पति अर्थात् अध्यक्ष राजन्! या शिक्षाध्यक्ष! (वैश्वकर्मणाः) विश्व के कर्त्ता द्वारा रची (ये) जो (पञ्च ऋतवः) पांच या विस्तृत ऋतुएं हैं, (ये) जोकि (नौ) हम दोनों अर्थात् प्रजावर्ग और राजवर्ग को (परि सं बभूवुः) घेरे हुई है, वे हम दोनों के लिये सुखदायी हों (मन्त्र १७ से)। इहैव प्राणः (पूर्ववत मन्त्र- १७)

    टिप्पणी

    [मन्त्र १७ में “अग्नि" और १८ में "रोहित" पद, परमेश्वरार्थक है। पञ्च= पचि विस्तारे। विस्तृत या हेमन्त और शिशिर को एक ऋतु मान कर, पांच ऋतुएं कही है। अथवा ऋतवः नः सख्ये सन्तु]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (वाचस्पते) वाचस्पते ! परमात्मन् ! (ये) जो (पञ्च) हमारे शरीरों का परिपाक करने हारे या पांच (ऋतवः) ऋतुएं, वर्ष में ऋतुओं के समान शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियें (नौ) हमारे (वैश्वकर्मणाः) समस्त कर्मों और क्रियाओं को करने हारे होकर (ये) जो (परि संबभूवुः) उत्पन्न होते हैं वे पांचों इन्द्रियें और (प्राणः) प्राण (इह एव) इस देह में ही (नः सख्ये अस्तु) हमारे साथ मित्रभाव में रहें। हे (परमेष्ठिन्) परमेष्ठिन् ! प्रजापते ! सर्वोत्पादक ! (तं त्वा) उस तुमको (रोहितः) रोहित, उच्च-गति को प्राप्त ज्ञानी पुरुष सूर्य के समान (आयुषा वर्चसा) आयु और तेज से (दधातु) धारण करे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘योनौ’ इति क्वचित्। ‘येन’, इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O Vachaspati, lord of divine speech, let the five seasons, shaped by Vishvakarma, maker of the universe, with five elements, which affect us all round, be good and favourable to us ruler and the people. Throughout these seasons here, let pranic energy too be friendly and energising for us. O Lord Supreme, let the brilliant ruler, Rohita, as the refulgent sun, hold on to you with all his splendour and do you homage with the dedication of his life. (Of the seasons, shishir and hemanta may be taken as one, the cold season.)

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    Translation

    O Lord of divine speech, the five seasons that have sprung up helpful in all works of both of us; may the vital breath be i friendly to us just here. O observer of highest vows, may the ascendant Lord clad you, as such, with long life and lustre.

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    Translation

    O Vachaspati, the protector of Vedic speech those our five seasons which come respectively are Vishwakarman, the means of many actions. May the vital breath be in out favour here in this life. O Parmasthim ! may the may effcilgent with knowledge seek and grasp you with life and splendour.

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    Translation

    O God, the Lord of Vedic speech, these our five seasons have been created for the performance of all deeds. Even here may life-breath be our friend. O God, Highest of all, may this learned person worship Thee with his long life and splendor!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−स्त्रीपुरुषाभ्याम् (वैश्वकर्मणाः) विश्वकर्मन्-अण्। सर्वकर्मभ्यो हिताः। (परि) सर्वतः (सम्बभूवुः) प्राप्ता बभूवुः (रोहितः) म० १। रुह प्रादुर्भावे-इतन्। उत्पन्नो मनुष्यः। अन्यत् पूर्ववत् म० १७ ॥

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