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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 35
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    63

    ये दे॒वा रा॑ष्ट्र॒भृतो॒ऽभितो॒ यन्ति॒ सूर्य॑म्। तैष्टे॒ रोहि॑तः संविदा॒नो रा॒ष्ट्रं द॑धातु सुमन॒स्यमा॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । दे॒वा: । रा॒ष्ट्र॒ऽभृत॑: । अ॒भित॑: । यन्ति॑ । सूर्य॑म् । तै: । ते॒ । रोहि॑त: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । रा॒ष्ट्रम् । द॒धा॒तु॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑न: ॥१.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा राष्ट्रभृतोऽभितो यन्ति सूर्यम्। तैष्टे रोहितः संविदानो राष्ट्रं दधातु सुमनस्यमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । देवा: । राष्ट्रऽभृत: । अभित: । यन्ति । सूर्यम् । तै: । ते । रोहित: । सम्ऽविदान: । राष्ट्रम् । दधातु । सुऽमनस्यमान: ॥१.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (ये) जो (राष्ट्रभृतः) राज्यपोषक (देवाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (सूर्यम्) सबके चलानेवाले [परमेश्वर] को (अभितः) सब ओर से (यन्ति) प्राप्त होते हैं। (तैः) उनसे (संविदानः) मिलता हुआ, (सुमनस्यमानः) प्रसन्नचित्त (रोहितः) सबका उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (ते) तेरे (राष्ट्रम्) राज्य को (दधातु) पुष्ट करे ॥३५॥

    भावार्थ

    जिस राज्य में विद्वान् लोग ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं, वह राज्य सदा बढ़ता रहता है ॥३५॥

    टिप्पणी

    ३५−(ये) (देवाः) विजिगीषवः (राष्ट्रभृतः) राज्यपोषकाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमेश्वरम् (तैः) देवैः (ते) तव (रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (संविदानः) संगच्छमानः (राष्ट्रम्) राज्यम् (दधातु) पुष्णातु (सुमनस्यमानः) शोभनमनाः ॥

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    विषय

    रोहितः देवाः

    पदार्थ

    १. (ये देवा:) = जो देववृत्ति के पुरुष (राष्ट्रभृत:) = राष्ट्र का धारण करनेवाले हैं, वे (अभितः सूर्य यन्ति) = शीघ्रता से [अभित:-quickly] सूर्यसम् ज्योतिवाले ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। ब्रह्म की उपासनावाले ये देव ही वस्तुतः राष्ट्र का भरण कर पाते हैं। ब्रह्म की उपासना उन्हें शक्ति व पवित्रता प्राप्त कराती है। २. (तैः) = उन विद्वानों से (संविदान:) = ऐकमत्यवाला तथा (सुमनस्यमन:) = प्रीतिवाला होता हुआ (रोहितः) = तेजोदीप्त, सदावृद्ध प्रभु (ते राष्ट्रं दधातु) = तेरे राष्ट्र को धारण करें। प्रभु इन देवों के द्वारा राष्ट्र का धारण करते हैं।

    भावार्थ

    राष्ट्र का धारण वे देववृत्ति के व्यक्ति ही कर पाते हैं जो प्रभु के सम्पर्क में शक्ति व पवित्रता का सम्पादन करते हैं। इनके प्रति प्रीतिवाले प्रभु इन्हें राष्ट्रधारण-शक्ति प्राप्त कराते हैं।

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    भाषार्थ

    (राष्ट्रभृतः) राष्ट्र का भरण-पोषण करने वाले (ये) जो (देवाः) देवकोटि के शासक अधिकारी, (सूर्यम् अभितः) सूर्य समान निर्मल कीर्ति वाले सम्राट् के संमुख (यन्ति) आते-जाते हैं, (तैः) उन द्वारा (संविदानः) सम्यक्-ज्ञान को प्राप्त हुआ, (ते) हे परमेश्वर ! तेरा (रोहितः) राष्ट्रारूढ़ सम्राट्, (सुमनस्यमानः) प्रसन्न चित्त हुआ, हुआ (राष्ट्रम् दधातु) राष्ट्र का धारण-पोषण करे।

    टिप्पणी

    [देवाः= राष्ट्र के शासक देवकोटि के व्यक्ति होने चाहिये। राष्ट्रारूढ़ सम्राट् यह समझे कि मैं परमेश्वर द्वारा नियुक्त हुआ राष्ट्र का शासक बना हूं। वह निज अधिकारियों के साथ ऐकमत्य को प्राप्त हुआ और उन से ज्ञान प्राप्त करके शासन करे]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (ये देवाः) जो देव, विद्वान् लोग (राष्ट्रभृतः) राष्ट्र या तेज को धारण करने वाले हैं और (अमितः सूर्यम्) सूर्य के चारों ओर ग्रहों के समान सर्वप्रेरक राजा के चारों ओर (यन्ति) गति करते हैं हे पुरुष ! (तैः) उनसे (संविदानः) उत्तम सत् मन्त्रणा करता हुआ (रोहितः) उच्च पदारूढ़ राजा (सुमनस्यमानः) शुभ चित्त, शुभ संकल्प होकर (ते) तेरे (राष्ट्र) राष्ट्र का (दधातु) पोषण करे।

    टिप्पणी

    ‘वहन्त्यभ्यक्तु हरयः’ (तृ०) ‘रोचसे अर्णवम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Those divine souls who are brilliant and generous and all round rise to the sun without reservation are sustainers and burden-bearers of the social order. Let Rohita, the ruler, happy and noble at heart, knowing, meeting and winning their cooperation, rule and maintain the governance and administration of the social order.

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    Translation

    In accord with the enlightened ones, sustainers of the kingdom, who go around the sun, may the ascendant Lord, sustain your kingship with friendly favour.

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    Translation

    Let Rohita, the rising red sun in cooperation with those my sterious powers which guard kingdom of cosmos and circle round the sun, looking beautiful support your kingdom, O strong man.

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    Translation

    With all the learned persons, who, upholding royal sway, approach God from all sides, with all of these may God accordant, give sovereignty to thee with friendly spirit.

    Footnote

    Thee: The King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३५−(ये) (देवाः) विजिगीषवः (राष्ट्रभृतः) राज्यपोषकाः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमेश्वरम् (तैः) देवैः (ते) तव (रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (संविदानः) संगच्छमानः (राष्ट्रम्) राज्यम् (दधातु) पुष्णातु (सुमनस्यमानः) शोभनमनाः ॥

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