अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 39
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
48
अ॒मुत्र॒ सन्नि॒ह वे॑त्थे॒तः संस्तानि॑ पश्यसि। इ॒तः प॑श्यन्ति रोच॒नं दि॒वि सूर्यं॑ विप॒श्चित॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मुत्र॑ । सन् । इ॒ह । वे॒त्थ॒ । इ॒त: । सन् । तानि॑ । प॒श्य॒सि॒ । इ॒त: । प॒श्य॒न्ति॒ । रो॒च॒नम् । दि॒वि । सूर्य॑म् । वि॒प॒:ऽचित॑म् ॥१.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
अमुत्र सन्निह वेत्थेतः संस्तानि पश्यसि। इतः पश्यन्ति रोचनं दिवि सूर्यं विपश्चितम् ॥
स्वर रहित पद पाठअमुत्र । सन् । इह । वेत्थ । इत: । सन् । तानि । पश्यसि । इत: । पश्यन्ति । रोचनम् । दिवि । सूर्यम् । विप:ऽचितम् ॥१.३९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] (अमुत्र) वहाँ पर (सन्) रहता हुआ तू (इह) यहाँ (वेत्थ) जानता है, (इतः) इधर (सन्) रहता हुआ (तानि) उन [वस्तुओं] को (पश्यसि) देखता है। (इतः) यहाँ से (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (रोचनम्) चमकनेवाले (विपश्चितम्) बुद्धिमान् (सूर्यम्) सबके चलानेवाले [परमेश्वर] को (पश्यन्ति) वे [विद्वान्] देखते हैं ॥३९॥
भावार्थ
परमेश्वर समीप और दूर से सर्वव्यापी होकर सर्वनियन्ता है, ऐसा विचार कर बुद्धिमान् लोग अपने व्यवहारों में उन्नति करते हैं ॥३९॥
टिप्पणी
३९−(अमुत्र) तत्र। दूरदेशे (सन्) वर्तमानः सन् (इह) अत्र (वेत्थ) जानासि (इतः) अत्र (सन्) (तानि) दूरस्थानि वस्तूनि (पश्यसि) निरीक्षसे (इतः) (पश्यन्ति) अवलोकयन्ति (रोचनम्) प्रकाशमानम् (दिवि) प्रत्येकव्यवहारे (सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमेश्वरम् (विपश्चितम्) मेधाविनम्-निघ० ३।१५ ॥
विषय
रोचन सूर्य विपश्चित्
पदार्थ
१. हे प्रभो! आप (अमुत्र सन्) = उस सुदूर स्थान में होते हुए (इह वेत्थ) = यहाँ सब-कुछ जानते हो और (इत:सन्) = इधर होते हुए (तानि पश्यसि) = उन सुदूर की वस्तुओं को भी देखते हो। २. इसप्रकार प्रभु के उपासक (इत:) = इधर हृदयदेश में उस प्रभु को (पश्यन्ति) = देखते हैं, जो प्रभु (रोचनम्) = दीप्त हैं, (दिवि सूर्यम्) = अपने प्रकाशमय स्वरूप में निरन्तर गतिवाले हैं। (विपश्चितम्) = ज्ञानी हैं। २. प्रभु का हृदय में ध्यान करते हुए हम भी ओजस्वी बनें [रोचनम्], ज्ञानपूर्वक क्रियाओं को करनेवाले हों [दिवि सूर्यम्] अधिक-से-अधिक ज्ञान को प्राप्त करें [विपश्चितम्]।
भावार्थ
प्रभु पृथिवीलोक में स्थित होते हुए द्युलोक को सम्यक् देखते हैं, धुलोक में होते हुए पृथिवी को सम्यक् देखते हैं। इन प्रभु को उपासक हृदय में 'रोचन, सूर्य, विपश्चित्' रूप में देखता है। ऐसा ही बनने का प्रयत्न करता है।
भाषार्थ
हे परमेश्वर! (अमुत्र सन्) उस दूर द्युलोक में विद्यमान होता हुआ तू (इह) इस पृथिवी लोक में विद्यमान पदार्थो को (वेत्त्थ) जानता है, (इतः सन्) और इस पृथिवी में होता हुआ तू (तानि) उन द्युलोक के पदार्थो को (पश्यसि) देखता है। परन्तु योगि-ध्यानी लोग (इतः) केवल इस पृथिवी से (रोचनम्) रुचिकर या रोचक और (विपश्चितम्) तुम मेधावी को (पश्यन्ति) देख पाते हैं, जैसे कि (दिवि सूर्यम्) द्युलोक में सूर्य को [यहां से] देखते हैं।
टिप्पणी
[मन्त्र के प्रथमार्धभाग में परमेश्वर की व्यापकता का निर्देश दिया है, जोकि दूर होता हुआ यहां के पदार्थों जो जानता और यहां होता हुआ दूर के पदार्थों को देखता है। यह देखने वाला सूर्य नहीं हो सकता। सूर्य दूर रहता हुआ यहां के पदार्थों को जानता है, यह किसी तरह माना जा सकता है। परन्तु सूर्य की सत्ता यहां पृथिवी पर है नहीं, तब वह यहां से द्युलोकस्थ पदार्थों को कैसे देख सकता है। परमेश्वर तो सर्वव्यापक है, उस की स्थिति यहां भी है और दूर में भी। यथा “तद् दूरे तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः" (यजु० ४०।५)। साथ ही “विपश्चितम्" पद भी सूर्य का सूचक नहीं हो सकता। विपश्चित् का अर्थ है मेधावी (निघं० ३।१५)। सूर्य मेधावी नहीं। परमेश्वर तो मेधावी है। "दिवि सूर्यम्" दृष्टान्तरूप भी है, जैसे हम सूर्य को प्रत्यक्ष देखते हैं, वैसे योगि-ध्यानी उपासक परमेश्वर को सूर्यवत् चमकता हुआ ध्यानावस्था में प्रत्यक्ष करते हैं]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(अमुत्र सन्) हे प्रभो ! आप दूर रहकर (इह वेत्थ) यहां की जान लेते हो और (इतः सत्) यहां रह कर भी। तानि) उन उन के कार्यों को (पश्यन्ति) देखते हो। (दिवि सूर्यम्) द्यौलोक में सूर्य समान प्रकाशमान एव (विपश्चितम्) समस्त कामों को जानने वाले मेधावी, आपको (रोचनम्) प्रकाशमान रूप में (इतः) इस लोक को तत्वदर्शी (पश्यन्ति) साक्षात् दर्शन करते हैं।
टिप्पणी
(तृ०) ‘यतः पश्यन्ति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Lord Supreme, O Sun, being there you know, see and illuminate every thing here, and being here, you know and see every thing there. The wise sages, however, from here only, see and realise the refulgent Sun, omniscient and illuminant, there in the heaven of light.
Translation
Staying yonder, you know what is here, staying here, you see the yonder ones. From here people see the brilliant sun, full of wisdom, in the sky.
Translation
O All creating God, Thou, (due to Thy All-pervasiveness and omniscience being there knowest everything of here, Thou being here knowest them which are there. Therefore, the sea of spiritual attainment see all-intelligence, All-inpelling Thee who is always existent in His shining blessedness.
Translation
O God, Thou, yonder, knowest all things -here, when here Thou knowest what is there. From here the learned see God, Resplendent like the Sun in heaven, and profoundly wise !
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३९−(अमुत्र) तत्र। दूरदेशे (सन्) वर्तमानः सन् (इह) अत्र (वेत्थ) जानासि (इतः) अत्र (सन्) (तानि) दूरस्थानि वस्तूनि (पश्यसि) निरीक्षसे (इतः) (पश्यन्ति) अवलोकयन्ति (रोचनम्) प्रकाशमानम् (दिवि) प्रत्येकव्यवहारे (सूर्यम्) सर्वप्रेरकं परमेश्वरम् (विपश्चितम्) मेधाविनम्-निघ० ३।१५ ॥
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