अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
161
रोहि॑तो॒ द्यावा॑पृथि॒वी ज॑जान॒ तत्र॒ तन्तुं॑ परमे॒ष्ठी त॑तान। तत्र॑ शिश्रिये॒ऽज एक॑पा॒दोऽदृं॑ह॒द्द्यावा॑पृथि॒वी बले॑न ॥
स्वर सहित पद पाठरोहि॑त: । द्यावा॑पृथि॒वी । इति॑ । ज॒जा॒न॒ । तत्र॑ । तन्तु॑म् । प॒र॒मे॒ऽस्थी । त॒ता॒न॒ । तत्र॑ । शि॒श्रि॒ये॒ । अ॒ज: । एक॑ऽपाद: । अदृं॑हत् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । बले॑न ॥१,६॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहितो द्यावापृथिवी जजान तत्र तन्तुं परमेष्ठी ततान। तत्र शिश्रियेऽज एकपादोऽदृंहद्द्यावापृथिवी बलेन ॥
स्वर रहित पद पाठरोहित: । द्यावापृथिवी । इति । जजान । तत्र । तन्तुम् । परमेऽस्थी । ततान । तत्र । शिश्रिये । अज: । एकऽपाद: । अदृंहत् । द्यावापृथिवी इति । बलेन ॥१,६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और पृथिवी को (जजान) उत्पन्न किया, (तत्र) उस में (परमेष्ठी) सबसे ऊँचे पदवाले [उस परमेश्वर] ने (तन्तुम्) तन्तु [सूत्रात्मा वायु] को (ततान) फैलाया। (तत्र) उसमें (अजः) वह अजन्मा (एकपादः) एक डगवाला [सब जगत् में एकरस व्यापक] (शिश्रिये) ठहरा, उसने (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और पृथिवी को (बलेन) अपने बल से (अदृंहत्) दृढ़ किया ॥६॥
भावार्थ
जैसे परमात्मा ने सब सूर्य्य पृथ्वी आदि लोकों को उत्पन्न करके, और उनके भीतर सूत्रात्मा वायु वा आकर्षण रखकर सबको नियम में बाँधा है, वैसे ही बलवान् पुरुष अपने इन्द्रियों और सब लोगों को विविध प्रकार अपने वश में रक्खे ॥६॥
टिप्पणी
६−(रोहितः) म० १। सर्वोत्पादकः (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (जजान) जनयामास (तत्र) तस्मिन् (तन्तुम्) सूत्रम्। सूत्रात्मानं वायुम्। आकर्षणम् (परमेष्ठी) सर्वोत्कृष्टे पदे स्थितः परमेश्वरः (ततान) विस्तारयामास (तत्र) (शिश्रिये) तस्थौ (अजः) अजन्मा (एकपादः) सर्वजगति निरन्तरव्यापकः (अदृंहत्) दृढीकृतवान् (द्यावापृथिवी) (बलेन) सामर्थ्येन ॥
विषय
'उत्पादक व धारक' प्रभु
पदार्थ
१. (रोहित:) = वह सदा से प्रवृद्ध तेजोमय प्रभु (द्यावापृथिवी जजान) = द्युलोक व पृथिवीलोक को-तदन्तरवर्ती सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जन्म देते हैं। (तत्र) = उस ब्रह्माण्ड में (परमेष्ठी) = परम स्थान में स्थित प्रभु (तन्तुं ततान) = [तन्तु offspring, issue, race, cobweb] प्राणिजातियों को-शरीरों के जाल को विस्तृत करते हैं। प्रभु सृष्टि को उत्पन्न करते हैं, उसमें विविध प्राणियों के जाल का विस्तार करते हैं। २. (तत्र) = उस विस्तृत तन्तु में-प्राणिमात्र के हृदय में (एकपादः अज:) = एक चाल से चलनेवाले, सम्पूर्ण संसार को गति देनेवाले एकरस प्रभु (शिश्रिये) = आश्रय करते हैं। सबके हृदयों में प्रभु का निवास है। वे प्रभु ही (बलेन) = अपनी शक्ति से (द्यावापृथिवी अदृहत्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को-द्युलोक व पृथिवीलोक को दृढ़ किये हुए हैं। प्रभु ही सारे ब्रह्माण्ड का धारण कर रहे हैं।
भावार्थ
प्रभु सारे ब्रह्माण्ड को जन्म देते हैं। विविध प्रजातन्तु का उसमें विस्तार करते हैं। सबको गति देनेवाले वे एकरस प्रभु सबके हृदयों में आसीन हैं। सारे ब्रह्माण्ड को अपनी शक्ति से धारण किये हुए हैं।
भाषार्थ
(रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर ने (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी को (जजान) पैदा किया है, (परमेष्ठी) परमस्थान में स्थित परमेश्वर ने (तत्र) उन दोनों के मध्य में (तन्तुम्) विस्तृत सूत्रात्मकवायु को (ततान) ताना है, फैलाया है। (तत्र) उन द्युलोक-पृथिवी तथा सूत्रात्मक वायु में (एकपादः अजः) एक पाद तथा अजन्मा परमेश्वर (शिश्रिये) आश्रय पाया हुआ है, उसने (बलेन) निज बल द्वारा (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी को (अदृंहत्) सुदृढ़ किया है।
टिप्पणी
[परमेष्ठी= "ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्" (अथर्व० १०।७।१७), अर्थात् जो पुरुष अर्थात् शरीरपुरी में शयन किये हुए या बसे हुए जीवात्मा में विद्यमान ब्रह्म को जानते हैं, वे ब्रह्म के परमेष्ठिस्वरूप को जानते हैं। परमेष्ठी= परमे जीवात्मनि तिष्ठतीति परमेष्ठी। अजः= परमेश्वर का जन्म नहीं होता। वह शरीरधारण नहीं करता। एकपादः= "पादोऽस्यविश्वा भूतानि", "पादोऽत्येहाभवत् पुनः" (यजु० ३१।३,४)]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(रोहितः) सब के उत्पादक परमात्मा ने (द्यावा पृथिवी) द्यौ, आकाश और पृथिवी को (जजान) उत्पन्न किया है। (तत्र) वहां उन दोनों में (परमेष्ठी) प्रजापति परमात्मा ने (तन्तुम्) विस्तारशील प्रजा या प्रकृति को या वायुरूप सूत्र को (ततान) फैलाया, उत्पन्न किया। (तत्र) उस पर (अजः) अजन्मा (एकपादः) एक मात्र सर्वाश्रय, स्वरूपप्रतिष्ठ, परमात्मा ही स्वयं (शिश्रिये) उसमें आश्रय रूप से वर्तमान रहा, उसने (बलेन) अपने विक्षोभकारी बल से (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी को (अदृंहत्) दृढ़ता से स्थापित कर दिया। अपने अपने स्थान पर नियत कर दिया।
टिप्पणी
(तृ०) ‘एकपाद्यो’ इति पैप्प० सं०। (तृ०) ‘तस्मिन् शि’ इति मै० ब्रा०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O man, O ruler, Rohita, self-refulgent lord creator, brought the heaven and earth into being. Therein Parameshthi Prajapati, lord of life and living beings, evolved and extended the web of life. There pervaded and abided the eternal, unborn, sole self-sustained lord divine Aja and firmed up the heaven and earth in space.
Translation
The ascendant Lord has created the heaven and earth; there the Lord of the supreme abode has stretched out the line; there the one-footed unborn has taken shelter; He has made firm the heaven and earth with His might.
Translation
Rohita, the All-creating Divinity brings to their existence the heaven and earth. Parmesthim, the law eternal spreads the cord of relation between them. Ajaekpad, the sun liee there in heaven and holds firm the earth and heavenly region with mighty power.
Translation
God gave the Earth and Heaven there being. There hath He extended Matter. Therein pervades the Eternal, One-footed God, He with His might hath established Earth and Heaven.
Footnote
One-footed: The sole shelter of the world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(रोहितः) म० १। सर्वोत्पादकः (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (जजान) जनयामास (तत्र) तस्मिन् (तन्तुम्) सूत्रम्। सूत्रात्मानं वायुम्। आकर्षणम् (परमेष्ठी) सर्वोत्कृष्टे पदे स्थितः परमेश्वरः (ततान) विस्तारयामास (तत्र) (शिश्रिये) तस्थौ (अजः) अजन्मा (एकपादः) सर्वजगति निरन्तरव्यापकः (अदृंहत्) दृढीकृतवान् (द्यावापृथिवी) (बलेन) सामर्थ्येन ॥
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