अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - अतिजागतगर्भा जगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
76
आ त्वा॑ रुरोह बृह॒त्यु॒त प॒ङ्क्तिरा क॒कुब्वर्च॑सा जातवेदः। आ त्वा॑ रुरोहोष्णिहाक्ष॒रो व॑षट्का॒र आ त्वा॑ रुरोह॒ रोहि॑तो॒ रेत॑सा स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । रु॒रो॒ह॒ । बृ॒ह॒ती । उ॒त । प॒ङ्क्ति: । आ । क॒कुप् । वर्च॑सा । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । आ । त्वा॒ । रु॒रो॒ह॒ । उ॒ष्णि॒हा॒ऽअ॒क्ष॒र: । व॒ष॒ट्ऽका॒र: । आ । त्वा॒ । रु॒रो॒ह॒ । रोहि॑त: । रेत॑सा । स॒ह ॥१.१५।
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा रुरोह बृहत्युत पङ्क्तिरा ककुब्वर्चसा जातवेदः। आ त्वा रुरोहोष्णिहाक्षरो वषट्कार आ त्वा रुरोह रोहितो रेतसा सह ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । रुरोह । बृहती । उत । पङ्क्ति: । आ । ककुप् । वर्चसा । जातऽवेद: । आ । त्वा । रुरोह । उष्णिहाऽअक्षर: । वषट्ऽकार: । आ । त्वा । रुरोह । रोहित: । रेतसा । सह ॥१.१५।
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(जातवेदः) हे प्रसिद्ध ज्ञानवाले पुरुष ! (त्वा) तुझको (बृहती) विशाल विद्या ने (उत) और (पङ्क्तिः) कीर्त्ति ने (आ) सब ओर से और (ककुप्) सुख फैलानेवाली शोभा ने (वर्चसा) प्रताप के साथ (आ) सब ओर से (रुरोह) ऊँचा किया है। (त्वा) तुझको (उष्णिहाक्षरः) बड़ी प्रीति से फैलनेवाले, (वषट्कारः) दान व्यवहार ने (आ) सब ओर से (रुरोह) ऊँचा किया है। और (त्वा) तुझको (रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (रेतसा सह) पराक्रम के साथ (आ) सब प्रकार से (रुरोह) ऊँचा किया है ॥१५॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों को धारण करते हैं, परमेश्वर उनको संसार में पराक्रमी करता है ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(आ) समन्तात् (त्वा) (रुरोह) अन्तर्गतण्यर्थः। उन्निनाय (बृहती) विशाला विद्या (उत) अपि (पङ्क्तिः) पचि विस्तारे-क्तिन्। कीर्त्तिः। पृथिवी (ककुप्) कं सुखं स्कुभ्नाति विस्तारयतीति सा। क+स्कुभ विस्तारे-क्विप्। शोभा (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान (आ) (त्वा) (रुरोह) (उष्णिहाक्षरः) उत्+ष्णिह प्रीतौ-क्विन्, टाप्। अशेः सरन्। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सरन्। उत्कृष्टप्रीत्या व्यापकः (वषट्कारः) अ० १।१०।१। वह प्रापणे-डषटि। दानव्यवहारः (त्वा) (रुरोह) (रोहितः) (रेतसा) सामर्थ्येन (सह) साकम् ॥
विषय
बृहती, पति, ककुप
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जीवन से यज्ञ का प्रतिपादन करनेवाले–यज्ञमय जीवनवाले (त्वा) = तुझे (बृहती आरुरोह) = बृहती आरोहण करती है। 'वाग्वै बहती' [श०१४.४.१.२२] यह वाग्रूप बृहती तुझे प्राप्त होती है। वेदवाणी द्वारा प्राप्त ज्ञान तुझे अलंकृत करता है (उत) = और पङ्गिः ['पङ्किर्विष्णो: पत्नी' गो० उ०२.९] विष्णु की पत्नी'लक्ष्मी'तुझे मातरूपेण प्रास होती है। इसके द्वारा तेरे सारे भौतिक कार्य शोभा के साथ चलते हैं। है (जातवेदः) = उत्पन्न ज्ञानवाले [विद् ज्ञाने] तथा उत्पन्न धनवाले [विद् लाभे] उपासक! तुझे (वर्चसा) = वर्चस के साथ (ककुप् आ) [रोह] = प्राणो वै ककुप् छन्दः श०८.५.२.४ प्राणशक्ति आरूढ़ होती है। तू प्राणशक्ति-सम्पन्न बनकर नीरोग व सुन्दर जीवनवाला होता है। २. (त्वा) = तुझे (उष्णिहा अक्षर:) = [आयुर्वा उष्णिक् ऐ०१.५] जिसमें शक्ति का क्षरण [विनाश] नहीं हुआ ऐसा (आयुष्य आरुरोह) = प्राप्त होता है। (वषट्कार:)[आरुरोह] = [ओजश्च सहश्च वषट्कारश्च प्रियतमे तन्वी' ऐ०३.८] तुझे ओजस्विता व सहनशक्ति प्राप्त होती है। अब इस स्थिति में वह (रोहित:) = तेजस्वी प्रभु (रेतसा सह) = रेतस के साथ [शक्ति के साथ] (स्वा) = तुझे (आरुरोह) = आरोहण करता है-प्राप्त होता है।
भावार्थ
यज्ञशील को 'ज्ञान, श्री, प्राणशक्ति, वर्चस, शक्ति-सम्पन्न दीर्घजीवन, ओजस्विता व सहनशीलता' प्राप्त होती है और अब 'शक्ति के साथ प्रभु' इसे प्राप्त होते हैं।
भाषार्थ
हे राजन्! (त्वा) तुझ पर (बृहती) बृहती छन्द वाले मन्त्र (उत) और (पङि्क्त) पङि्क्त छन्द वाले मन्त्र (आरुरोह) सवार हुए हैं, (जातवेदः) हे उत्पन्न पदार्थों के जानने वाले राजन्! (ककुप्) ककुप् छन्द वाले मन्त्र (वर्चसा) निज ज्ञानवर्चस् के साथ (आ) तुझ पर सवार हुए हैं। (उष्णिहाक्षरः) उष्णिक् छन्द द्वारा प्रतिपाद्य अक्षर, अविनाशी परमेश्वर या इस छन्द के अक्षरों वाला मन्त्र तथा (वषट्कारः) वषट्कार (त्वा) तुझ पर (आ रुरोह) सवार हुए हैं, (रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर (रेतसा सह) निज शक्ति के साथ (त्वा) तुझ पर (आ रुरोह) सवार हुआ है।
टिप्पणी
[राजा को सम्बोधित कर के कहा है कि हे राजन्! राष्ट्र में जो उत्पत्तियां या उन्नतियां होती हैं उन्हें तु जानता है। राष्ट्रशासन के लिये वैदिक छन्दों में निर्दिष्ट विधियों द्वारा तूने राष्ट्रशासन करना है। ये वैदिक छन्द तुझ पर आरूढ़ हुए हैं, मानो तुझ पर सवार हुए हैं। जैसे अश्वारोही अर्थात् घुड़सवार अश्व पर आरूढ़ होकर अश्व को चलाता है, इसी प्रकार वैदिक छन्दों में उपदिष्ट निर्देश तुझे मार्ग दर्शन कराएंगे। यही नहीं, अपितु यह भी जान कि सर्वाधिरोही परमेश्वर भी निज शक्ति समेत तुझ पर सवार है। इसलिये परमेश्वर निर्दिष्ट मार्ग से राष्ट्र का शासन करना, तथा राष्ट्रशासन यज्ञ को सफल बनाने वाले राष्ट्रिय देवों अर्थात् सत्पात्रों को दान देकर उनकी पूजा करते रहना। यजुर्वेद के यज्ञाहुति सम्बन्धी मन्त्र का उच्चारण करने के अन्त में "वषट्" बोलकर यज्ञों में आहुति दी जाती है। इसलिये मन्त्र में वषट्कार का अभिप्राय है सत्पात्रों में दानरूपी आहुतियां प्रदान करना। उष्णिहाक्षरः= उष्णिक् (उष्णिह;, उत्पूर्वात स्निह्यतेर्वा स्यात् कान्तिकर्मणः; निरुक्त (७।३।१२)। उष्णिक्= उष्णिह्; "टापं चैव हलन्तानाम्" द्वारा उष्णिह् + आ= उष्णिहा। उष्णिहायाः अक्षराणि१ यस्मिन् सः उष्णिहाक्षरः मन्त्रः। प्रतीत होता है कि बृहती आदि छन्दों में से, कतिपय बृहती आदि छन्दों में राष्ट्रशासन के उत्कृष्ट तत्वों का वर्णन हैं, उन्हीं छन्दों का निर्देश मन्त्र में किया गया है]। [१. इस द्वारा यह दर्शाया है कि मन्त्रपादों में अक्षरसंख्या का नियम आवश्यक है, लघु-गुरु मात्राओं का नियम आवश्यक नहीं]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे (जातवेदः) जातवेदः, जातप्रज्ञ ! सर्वज्ञ ज्ञानमय परमेश्वर। (बृहती) बृहती, महान् लोकों का पालन करनेहारी शक्ति ३६ अक्षर की बृहती छन्द, गौ अश्वादि पशु सम्पत्ति, श्री, मन, प्राण, आत्मा ये सब (त्वा आरुरोह) तुझ पर आश्रित हैं। (उत) और (पंक्तिः) पंक्तिछन्द, ऊर्ध्वा दिशा, अन्न, प्रतिष्ठा आदि और (ककुब्) ककुप्छन्द, यह पुरुष और समस्त दिशाएं भी (वर्चसा) तेरे तेज की अधिकता के कारण (त्वा आरुरोह) तेरे ही आश्रय हैं। (उष्णिहाक्षरः) अठ्ठाईस अक्षरों वाले उष्णिक् छन्द के अक्षर, आयु, ग्रीवा, चक्षु, बकरी और भेड़ों की सम्पत्ति आदि (त्वा) तुझ पर (आरुरोह) आश्रित हैं। (वषट्कारः) समस्त वाणी, ६ हों ऋतुओं का संचालक सूर्य, वाणी और प्राणापान, वज्र, ओज और बल, वायु विद्युत्, मेघ और उसका गर्जन आदि सभी (त्वा आरुरोह) तेरे ही आश्रय पर होता है। और (रोहितः) ‘रोहित’ सबका आश्रय, सर्वोत्पादक (रेतसा सह) सब के बीजमय उत्पादक सामर्थ्य से युक्त सूर्य भी तेरे पर ही आश्रित है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘बृहत्यत’, (द्वि०) ‘विश्ववेदाः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Jataveda, lord all-pervasive and omniscient, hymns of the Veda in Brhati metre, in Pankti, in Kakup, all with their divine beauty and grace rise to you in homage and celebrate your glory. So do Ushnik hymns, word by word, letter by letter, rise to you and celebrate your glory. So does the Vashatkara offer you homage of celebration. And so does Rohita, the refulgent sun, with its living light and vitality, shine in celebration of your glory and rises to honour you.
Translation
The Brhati ascends to you with all its force, also the Pankti, also the Kakup, O cognizant of all creatures. The usnik ascends to you, also the syllable and the sacred utterance of vasat. The ascendant Lord has risen to you with virility.
Translation
The Brihati metre raises this all pervading fire, panktih raised it to splendour, and the Kakup with its glory raises this. The letters of Ushink metre uplifts it, the cry of vashat raises it and the sun with its splendour uplifts it.
Translation
O learned person, vast knowledge, joy-bestowing grandeur have elevated thee on all sides, with great splendour. Loving, extensive charitable disposition has elevated thee. God has elevated thee in all respects with His might.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(आ) समन्तात् (त्वा) (रुरोह) अन्तर्गतण्यर्थः। उन्निनाय (बृहती) विशाला विद्या (उत) अपि (पङ्क्तिः) पचि विस्तारे-क्तिन्। कीर्त्तिः। पृथिवी (ककुप्) कं सुखं स्कुभ्नाति विस्तारयतीति सा। क+स्कुभ विस्तारे-क्विप्। शोभा (जातवेदः) हे प्रसिद्धज्ञान (आ) (त्वा) (रुरोह) (उष्णिहाक्षरः) उत्+ष्णिह प्रीतौ-क्विन्, टाप्। अशेः सरन्। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सरन्। उत्कृष्टप्रीत्या व्यापकः (वषट्कारः) अ० १।१०।१। वह प्रापणे-डषटि। दानव्यवहारः (त्वा) (रुरोह) (रोहितः) (रेतसा) सामर्थ्येन (सह) साकम् ॥
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