अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - मरुद्गणः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
96
यू॒यमु॒ग्रा म॑रुतः पृश्निमातर॒ इन्द्रे॑ण यु॒जा प्र मृ॑णीत॒ शत्रू॑न्। आ वो॒ रोहि॑तः शृणवत्सुदानवस्त्रिष॒प्तासो॑ मरुतः स्वादुसंमुदः ॥
स्वर सहित पद पाठयू॒यम् । उ॒ग्रा: । म॒रु॒त॒: । पृ॒श्नि॒मा॒त॒र॒: । इन्द्रे॑ण । यु॒जा । प्र । मृ॒णी॒त॒ । शत्रू॑न् । आ । व॒: । रोहि॑त: । शृ॒ण॒व॒त् । सु॒ऽदा॒न॒व॒: । त्रि॒ऽस॒प्तास॑: । म॒रु॒त॒: । स्वा॒दु॒ऽसं॒मु॒द॒: ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यूयमुग्रा मरुतः पृश्निमातर इन्द्रेण युजा प्र मृणीत शत्रून्। आ वो रोहितः शृणवत्सुदानवस्त्रिषप्तासो मरुतः स्वादुसंमुदः ॥
स्वर रहित पद पाठयूयम् । उग्रा: । मरुत: । पृश्निमातर: । इन्द्रेण । युजा । प्र । मृणीत । शत्रून् । आ । व: । रोहित: । शृणवत् । सुऽदानव: । त्रिऽसप्तास: । मरुत: । स्वादुऽसंमुद: ॥१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(पृश्निमातरः) हे पूँछने योग्य वेदवाणी को माता समान मान करनेवाले, (उग्राः) प्रचण्ड (मरुतः) शूर लोगो ! (यूयम्) तुम (इन्द्रेण) बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति (युजा) मित्र के साथ (शत्रून्) शत्रुओं को (प्र मृणीत) मार डालो। (सुदानवः) हे बड़े दानियो ! (त्रिषप्तासः) हे तीन [कर्म, उपासना और ज्ञान] के साथ सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नासिका, मन और बुद्धि] को रखनेवाले (स्वादुसंमुदः) हे भोजन योग्य अन्न में मिलकर आनन्द पानेवाले ! (मरुतः) हे शूर पुरुषो ! (रोहितः) सबका उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (वः) तुम्हारी [प्रार्थना] (आ) सब प्रकार (शृणवत्) सुने ॥३॥
भावार्थ
जो सेना गण शिल्प विद्या द्वारा आकाश आदि में जाते हैं, और जितेन्द्रिय होकर प्रीति के साथ मिल कर, रहते हैं, वे परमेश्वर से बल पाकर शूर सेनापति की सहायता से शत्रुओं को मारते हैं ॥३॥इस मन्त्र का पहिला भाग आ चुका है-अ० ५।२१।११ ॥
टिप्पणी
३−(यूयम्) (उग्राः) प्रचण्डाः (मरुतः) अ० १।२०।१। हे शूरवीराः (पृश्निमातरः) अ० ५।२१।११। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-नि। प्रष्टव्या वेदवाणी मातृवत् सत्करणीया येषां ते (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सेनापतिना (युजा) मित्रेण (प्र) प्रकर्षेण (मृणीत) मॄ हिंसायाम्। मारयत (शत्रून्) अरीन् (आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (रोहितः) म० १। सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (शृणवत्) शृणुयात् (सुदानवः) हे महादातारः (त्रिषप्तासः) बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। इति डच्, असुगागमः। त्रिभिः कर्म्मोपासनाज्ञानैः सह सप्त त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयो येषां ते तथाभूताः (मरुतः) (स्वादुसम्मुदः) कृवापाजिमिस्वदि०। उ० १? ष्वद आस्वादने-उण्+सम्+मुद हर्षे-क्विप्। भोज्यान्ने परस्परहर्षितारः ॥
विषय
उग्राः पृश्निमातरः
पदार्थ
१. (यूयम्) = तुम (उग्रा:) = तेजस्वी बनों, (पृश्निमातरः) [संस्पृष्टाभासाम्-पृश्निः] = ज्ञान-ज्योतियों से स्पृष्ट इस वेदवाणी को अपनी माता के समान जानों-उसकी प्रेरणा के अनुसार कार्य करते हुए उत्तम जीवनवाले बनों। (रुद्रेण युजा) = शत्रुबिद्रावक प्रभु के साथ (शत्रून् प्रमृणीत) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को कुचल डालो। २. (रोहित:) = वे तेजपुञ्ज अथवा सर्वतोवृद्ध प्रभु (वः आशृणवत्) = तुम्हारी प्रार्थना को सुनें-तुम प्रभु का आराधन करनेवाले बनो। (सुदानव:) = शत्रुओं का खूब ही [दाप् लबने] नाश करनेवाले होओ। (त्रिषप्तासः) = कर्म, ज्ञान व उपासनारूप त्रयी में 'दो कानों, दो नासिका-छिद्रों, दो आँखों व मुख' रूप [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] सतर्षियों को प्रवृत्त करनेवाले बनो। (मरुतः) = मितरावी-कम बोलनेवाले-कर्मवीर, नकि वाग्वीर बनो तथा (स्वादुसंमुदः) = घर में स्वादिष्ट पदार्थों का मिलकर [सम्] आनन्द लेनेवाले होओ।
भावार्थ
तुम्हारा शरीर तेजस्वी हो, मस्तिष्क में तुम ज्ञान की रुचिवाले बनो। प्रभु के उपासक बनकर हृदय में स्थित कामादि शत्रुओं को कुचल डालो। प्रभु का आराधन करते हुए शत्रुओं को कुचल डालो। कान आदि इन्द्रियों को 'ज्ञान, कर्म, उपासना' में प्रवृत्त करो। मितरावी बनो तथा स्वादिष्ट पदार्थों का मिलकर आनन्द लेनेवाले होओ। अकेले मत खाओ।
भाषार्थ
(पृश्निमातरः) भूमि को माता मानने वाले (उग्राः मरुतः) हे शूरवीर सैनिको! (यूयम्) तुम (इन्द्रेण युजा) सेनापति के सहयोग द्वारा (शत्रून् प्र मृणीत) शत्रुओं का नाश करो। (सुदानवः) सुगमता से विनाश करने वाले वीरो! (रोहितः) सिंहासनारूढ़ राजा (वः शृणवत्) तुम्हारी तकलीफों और कष्टों को सुने। (मरुतः) मारने वाले शूरवीरो! तुम (त्रिषप्तासः) ३ और ७ या ३X७ सैन्य विभागों में विभक्त हो, और (स्वादु संमुदः) स्वादु भोजनों में परस्पर मिल कर हर्ष प्राप्त करते हो।
टिप्पणी
[पृश्निः= भूमिः (सायण ऋक् १।२३।१०)। मरुत् = म्रियते मारयतीति वा सुदानवः= सु + दो (अवखण्डने) + नु। स्वादु संमुदः= सैनिकों के भोजन स्वादिष्ट होने चाहिए]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे (उग्राः मरुतः) बलवान् उग्र रूप मस्त गणो ! वायु के समान तीव्र वेगवान् एवं शत्रु के मृत्युकारक, भारी मार मारने वाले सैनिको ! (यूयम्) आप लोग (पृश्निमातरः) पृश्नि, पृथिवी को अपनी माता स्वीकार करते हुए (इन्द्रेण युजा) अपने साथ इन्द्र, राजा के सहित (शत्रून् प्र मृणीत) शत्रुओं का विनाश करो। (वः) तुम्हारा (रोहित) लाल पोषाक पहने, एवं सबसे ऊपर आरूढ़ सूर्य के समान तेजस्वी राजा (वः) आप लोगों के विषय में (आशृणवत्) सुने कि आप लोग (सु दानवः) उत्तम कल्याण, दानशील (त्रि-सप्तासः) इक्कीसों प्रकार के (मरुतः) मरुद्गण (स्वादुसंमुदः) उत्तम उत्तम भोगों में आनन्द लाभ कर रहे हो। अध्यात्म में—(मरुतः) हे प्राणगण या मुक्त जीवगण ! आप (पृश्निमातरः) पृश्नि, परमात्मा रूप माता से उत्पन्न हो, इन्द्र रूप आत्मा के साथ उसके वीर्य से काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। वह सर्वोपरि विराजमान रोहित परमात्मा आपको कल्याण-दानकारी (त्रि-सप्तासः) तीर्णतम मोक्ष प्रदेश में सर्पण करने हारे एवं (स्वादुसंमुदः) परमानन्द रस में प्रमोद करने हारे तुमको (आ शृणवत्) जाने।
टिप्पणी
(तृ०) ‘आशृणोदभिद्यावः सुदा’ इति तै० ब्रा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
You brave and stormy Marut warriors, children of the colourful earth, friends and associates of Indra, ruler and commander of the fighting forces, crush the enemies of life and humanity. And may Rohita, Lord ruler Supreme, listen to you, Maruts, generous givers, warriors of thrice seven orders, creative participants in the inspiring congregation of the defence of motherland.
Translation
O fierce brave soldiers, who consider the earth as your mother, with the help of the resplendent army chief, crush the enemies thoroughly. O thrice seven, brave soldiers,liberal donors, enjoyers of delicies, may the ascendant Lord listen to you.
Translation
These Mammas: electro-magnetic waves are very strong, produced by sun and givers of good gift, the rain etc. They form three group of seven each and give all sorts of palata-billity in plants etc. Accompanied by India, the lightning they destroy the obstacles to cause rains Rohita, Albcrating God makes us hear this fact (through His Vedic speech).
Translation
O strong and mighty soldiers, lovers of motherland, with king as ally crush down the foes. Ye bounteous givers, thrice-seven soldiers, who delight in dainty food, let God hear your prayer!
Footnote
Thrice: Action (Karma) Contemplation (Upasana) Knowledge (Gyana). Seven: Skin, Eye, Ear, Tongue, Nose, Mind, Intellect. Soldiers who acquire action, contemplation, knowledge through the help of seven organs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यूयम्) (उग्राः) प्रचण्डाः (मरुतः) अ० १।२०।१। हे शूरवीराः (पृश्निमातरः) अ० ५।२१।११। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-नि। प्रष्टव्या वेदवाणी मातृवत् सत्करणीया येषां ते (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सेनापतिना (युजा) मित्रेण (प्र) प्रकर्षेण (मृणीत) मॄ हिंसायाम्। मारयत (शत्रून्) अरीन् (आ) समन्तात् (वः) युष्मान् (रोहितः) म० १। सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (शृणवत्) शृणुयात् (सुदानवः) हे महादातारः (त्रिषप्तासः) बहुव्रीहौ संख्येये डजबहुगणात्। पा० ५।४।७३। इति डच्, असुगागमः। त्रिभिः कर्म्मोपासनाज्ञानैः सह सप्त त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयो येषां ते तथाभूताः (मरुतः) (स्वादुसम्मुदः) कृवापाजिमिस्वदि०। उ० १? ष्वद आस्वादने-उण्+सम्+मुद हर्षे-क्विप्। भोज्यान्ने परस्परहर्षितारः ॥
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