अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 45
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
51
सूर्यो॒ द्यां सूर्यः॑ पृथि॒वीं सूर्य॒ आपोऽति॑ पश्यति। सूर्यो॑ भू॒तस्यैकं॒ चक्षु॒रा रु॑रोह॒ दिवं॑ म॒हीम् ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य॑: । द्याम् । सूर्य॑: । पृ॒थि॒वीम् । सूर्य॑: । आप॑: । अति॑ । प॒श्य॒ति॒ । सूर्य॑: । भू॒तस्य॑ । एक॑म् । चक्षु॑: । आ । रु॒रो॒ह॒ । दिव॑म् । म॒हीम् ॥१.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यो द्यां सूर्यः पृथिवीं सूर्य आपोऽति पश्यति। सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुरा रुरोह दिवं महीम् ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्य: । द्याम् । सूर्य: । पृथिवीम् । सूर्य: । आप: । अति । पश्यति । सूर्य: । भूतस्य । एकम् । चक्षु: । आ । रुरोह । दिवम् । महीम् ॥१.४५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्यः) सबका चलानेवाला [परमेश्वर] (द्याम्) प्रकाशमान सूर्य को, (सूर्यः) वह सर्वप्रेरक (पृथिवीम्) पृथिवी को, (सूर्यः) वह सर्वनियामक (आपः) प्रत्येक काम को (अति पश्यति) निहारता है। (सूर्यः) वह सर्वनियन्ता (भूतस्य) संसार का (एकम्) एक (चक्षुः) नेत्र [नेत्ररूप जगदीश्वर] (दिवम्) आकाश पर और (महीम्) पृथिवी पर (आ रुरोह) ऊँचा हुआ है ॥४५॥
भावार्थ
वह समदर्शी जगदीश्वर सब संसार और सब कामों को देखता हुआ सबको अपने नियम में रखता है ॥४५॥
टिप्पणी
४५−(सूर्यः) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (सूर्यः) सर्वनियामकः (पृथिवीम्) (सूर्यः) (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ० ४।२०।८। आप्लृ व्याप्तौ-असुन्। कर्म (अति पश्यति) अत्यर्थं विलोकयति (सूर्यः) (भूतस्य) संसारस्य (एकम्) अद्वितीयम् (चक्षुः) नेत्रं यथा (आ रुरोह) अधिष्ठितवान् (दिवम्) आकाशम् (महीम्) भूमिम् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( सूर्यः ) = सबका चलानेवाला परमात्मा ( द्याम् ) = प्रकाशमान इस सूर्य को ( सूर्य: ) = वह सर्वप्रेरक ( पृथिवीम् ) = पृथिवी को ( सूर्यः ) = वह सर्वनियामक ( आपः ) = प्रत्येक काम को ( अतिपश्यति ) = देख रहा है। ( सूर्यः ) = वह सर्वनियन्ता ( भूतस्य ) = संसार का ( एकम् ) = एक ( चक्षुः ) = नेत्ररूप जगदीश्वर ( दिवम् ) = आकाश पर और ( महीम् ) = पृथिवी पर ( आरुरोह ) = ऊँचा स्थित है।
भावार्थ
भावार्थ = वह समदर्शी परमेश्वर सूर्य, पृथिवी, जल और प्राणीमात्र संसार को देखता हुआ सबको अपने नियम में चला रहा है। ऊँचा होने का अभिप्राय उच्च और उदार भावों में अधिक होने से है ।
विषय
'सूर्य' ब्रह्म
पदार्थ
१. (सूर्य:) = वह सूर्यसम दीप्त-ज्योतिवाला ब्रह्म (द्याम्) = द्युलोक को (अति पश्यति) = अन्तःप्रविष्ट होकर देख रहा है। (सूर्य:) = यह सूर्य प्रभु ही (पृथिवीम्) = पृथिवी में प्रविष्ट होकर देख रहा है। (सुर्य:) = यह सूर्य नामक ब्रह्म (आपः) = [आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः] सब प्रजाओं में प्रविष्ट होकर उनके प्रत्येक विचार व आचार को देख रहा है। द्युलोक, पृथिवीलोक व तत्रस्थ सब मनुष्यों को वे प्रभु अन्त:प्रविष्ट होकर देख रहे हैं। २. (सूर्यः) = वे सूर्यसम दीसिवाले प्रभु (भूतस्य) = प्राणिमात्र के (एकं चक्षुः) = अद्वितीय चक्षु हैं-प्रभु ही सबके मार्गदर्शक हैं। ये प्रभु (दिवं महीं आसरोह) = द्युलोक व पृथिवलोक में आरोहण किये हुए हैं-अधिष्ठातरूपेण वहाँ वर्तमान हैं। प्रभु के अधिष्ठातृत्व में ही यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गति कर रहा है।
भावार्थ
धुलोक, पृथिवीलोक, तत्रस्थ सब प्रजाओं को उनके अन्दर व्यास होकर देखनेवाले वे प्रभु ही हैं। प्राणिमात्र की वे अद्वितीय चक्षु हैं-मार्गदर्शक हैं। झुलोक व पृथिवीलोक के सारे व्यवहार प्रभु के अधिष्ठातृत्व में चल रहे हैं।
भाषार्थ
(सूर्यः) सूर्य (द्याम्, पृथिवीम्, आपः) द्युलोक, पृथिवी और समुद्र या अन्तरिक्ष से (अति) परे (पश्यति) देखता है। (सूर्यः) सूर्य (भूतस्यः) प्राणियों की (एकम्, चक्षुः) एकमात्र चक्षु है, वह (महीम्, दिवम्) बड़े द्युलोक पर (आ रुरोह) आरूढ़ हुआ है।
टिप्पणी
[आपः = जल; तथा अन्तरिक्ष (निघं० १।३)। सूर्य पद द्वारा परमेश्वर१ भी वाच्य है, देखो (मन्त्र ३९)। “अतिपश्यति" पद सूर्य के सम्बन्ध अत्युक्ति है, परन्तु परमेश्वरार्थ में यथार्थोक्ति है। परमेश्वर भी द्युलोक में आरूढ़ हुआ-हुआ है]। [१. "सो अग्निः स उ सूर्यः स उ एव महायमः" (अर्थव० १३।४।५)।]
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
वह महान् (सूर्यः) ‘सूर्य’ परमेश्वर (द्याम्) द्यौलोक को, वही (सूर्यः पृथिवीम्) सूर्य पृथ्वी को और वही (सूर्यः आपः) सूर्य समस्त ‘आपः’ प्रकृति के मूल सूक्ष्म परमाणुओं को भी (अति पश्यति) सूक्ष्मरूप से उनमें व्याप्त होकर उनको देख रहा है। (भूतस्य) इस उत्पन्न जगत् का (एकं) एकमात्र (चक्षुः) द्रष्टा और दर्शक भी वही (सूर्यः) सूर्य परमेश्वर है वह (महीम् दिवम्) विशाल द्यौलोक में अथवा पृथ्वी और द्यौलोक में (आरुरोह) व्याप्त है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
The Sun looks through and even beyond the highest region of light, the Sun shines over the earth and beyond, and the Sun penetrates through and beyond the waters and particles of space and the will and actions of humanity. The Sun is the one, only and unique eye of all living beings in existence, and the sun ascends to the highest heaven of space in existence.
Translation
The sun looks beyond the sky, the sun beyond the earth, the sun beyond the waters. The sun, the sole eye or the beings, has ascended the high heaven.
Translation
The Sun (as the battery of world) makes the people see heavenly region, the sun makes the people see earth and the sun makes the people see waters (of ocean). The sun is the one single eye of the world which arises on heaven and earth.
Translation
God pervades and knows fully, the Heaven, the Earth, and the subtle atoms of Matter. He is the single Seer of the universe. He pervades the Earth and Heaven.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४५−(सूर्यः) सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (सूर्यः) सर्वनियामकः (पृथिवीम्) (सूर्यः) (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ० ४।२०।८। आप्लृ व्याप्तौ-असुन्। कर्म (अति पश्यति) अत्यर्थं विलोकयति (सूर्यः) (भूतस्य) संसारस्य (एकम्) अद्वितीयम् (चक्षुः) नेत्रं यथा (आ रुरोह) अधिष्ठितवान् (दिवम्) आकाशम् (महीम्) भूमिम् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
সূর্য়ো দ্যাং সূর্য়ঃ পৃথিবীং সূর্য় আপোতি পশ্যতি।
সূর্য়ো ভূতস্যৈকং চক্ষুরারুরোহ দিবং মহীম্।।৫৬।।
(অথর্ব ১৩।১।৪৫)
পদার্থঃ (সূর্য়ঃ) সকলের চালক পরমাত্মা (দ্যাম্) প্রকাশমান দ্যুলোককে, (সূর্য়ঃ) সেই সর্ব প্রেরক পরমাত্মা (পৃথিবীম্) পৃথিবীকে, (সূর্য়ঃ) সেই সর্ব নিয়ামক পরমাত্মা (আপঃ) প্রত্যেক মানুষকে (অতি পশ্যতি) ভেতর থেকে দর্শন করেন। (সূর্য়ঃ) সেই সর্ব নিয়ন্তা পরমাত্মা (ভূতস্য) সংসারের (একম্) অদ্বিতীয় (চক্ষুঃ) চক্ষু স্বরূপ, তিনি (দিবম্) আকাশ (মহীম্) পৃথিবী (আরুরোহ) সর্বত্র আরোহণ করে আছেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ সেই সমদর্শী পরমেশ্বর দ্যুলোক, ভূলোক, সকল প্রাণী তথা সমস্ত সংসারের ভেতরে অবস্থান করে সমস্ত কিছু অবলোকন করেন। তিনি সমস্ত সংসারেই যেন আরোহণ করে আছেন, অর্থাৎ সর্বত্রই তিনি অবস্থান করছেন।।৫৭।।
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