अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
69
यो य॒ज्ञस्य॑ प्र॒साध॑न॒स्तन्तु॑र्दे॒वेष्वात॑तः। तमाहु॑तमशीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । य॒ज्ञस्य॑ । प्र॒ऽसाध॑न: । तन्तु॑: । दे॒वेषु॑ । आऽत॑त: । तम् । आऽहु॑तम् । अ॒शी॒म॒हि॒ ॥१.६०॥
स्वर रहित मन्त्र
यो यज्ञस्य प्रसाधनस्तन्तुर्देवेष्वाततः। तमाहुतमशीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । यज्ञस्य । प्रऽसाधन: । तन्तु: । देवेषु । आऽतत: । तम् । आऽहुतम् । अशीमहि ॥१.६०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [परमात्मा] (यज्ञस्य) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण, दानव्यवहार] का (प्रसाधनः) बड़ा साधक (तन्तुः) तन्तु [सूत्रात्मा रूप] होकर (देवेषु) देवों [इन्द्रियों, लोकों, और विद्वानों] में (आततः) निरन्तर फैला है। (तम् आहुतम्) उस सब ओर से ग्रहण किये गये [परमेश्वर] को (अशीमहि) हम प्राप्त होवें ॥६०॥
भावार्थ
मनुष्य उस जगत्पिता, सर्वनियन्ता, सर्वव्यापक परमात्मा को ध्यान में रखकर अपनी उन्नति करें ॥६०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० १०।५७।२ ॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
६०−(यः) परमात्मा (यज्ञस्य) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारस्य (प्रसाधनः) प्रकर्षेण साधकः (तन्तुः) सूत्रात्मा यथा (देवेषु) इन्द्रियेषु लोकेषु विद्वत्सु च (आततः) समन्ताद्विस्तृतः (तम्) परमात्मानम् (आहुतम्) समन्ताद् गृहीतम् (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥
विषय
यज्ञस्य प्रसाधनः
पदार्थ
१. (य:) = जो प्रभु (यज्ञस्य प्रसाधनः) = सब यज्ञों को सिद्ध करनेवाले हैं, 'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । सब यज्ञ प्रभुकृपा से ही पूर्ण हुआ करते हैं। जो प्रभु (देवेषु) = सूर्यादि सब देवों में (आततः तन्तुः) = फैले हुए तन्तु हैं। वस्तुत: प्रभु के कारण ही उस-उस पिण्ड में वह वह शक्ति दृष्टिगोचर होती है। ('पुण्यो गन्धः पृथिवीं च रसोऽहमप्सु कौन्तेय। तेन शक्तिरस्मि विभावसौ प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ॥ तेजस्तेजस्वितामहं बलं बलवतः चाहम्। बुद्धि बुद्धिमतामस्मि।') २. (तम्) = उस (आहुतम्) = समन्तात् दानोंवाले प्रभु को (अशीमहि) = हम सेवन करनेवाले बने, प्रभु का ही मनन करें।
भावार्थ
प्रभु सब यज्ञों के साधक हैं, सब देवों में व्यास सूत्र हैं। इन प्रभु के ही दान समन्तात् दृष्टिगोचर होते हैं। इनका हम उपासन करें। अथ द्वितीयोऽनुवाकः
भाषार्थ
(यज्ञस्य) जीवन-यज्ञ का (यः) जो (प्र साधनः) श्रेष्ठ साधनभूत, (तन्तुः) सूत्रात्मरूप परमेश्वर (देवेषु) प्रकाशमान सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारा आदि में (आततः) फैला हुआ है। (तम्) उस को, – (आहुतम्) जिस में कि हम ने आत्म-समर्पणरूपी आहुतियां दी हैं- (अशीमहि) हम प्राप्त हों। आहुतम् = अथवा जिस की आहुति हम ने निज आत्माओं में दी है उसे हम प्राप्त हों।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (यज्ञस्य) इस पूर्वोक्त महान् विश्वमय यज्ञ का (प्रसाधनः) संचालन करने-हारा (तन्तुः) तन्तु के समान सबको बांधने होरा होकर (देवेषु) समस्त प्राणों और समस्त लाकों और दिव्य पदार्थों मैं (आततः) फैला हुआ है (तम्) उस (आहुतम्) अति आदर योग्य, पूजनीय आनन्दमय प्रभु को हम (अशीमहि) सेवन करें, उसका दिये का भोग करें। या उसी आनन्द रस को अपनी आत्मा में आहुति करके उसका भोग करें।
टिप्पणी
ऋग्वेदे बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपायना ऋषयः, विश्वेदेवा देवताः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
That thread of living unity, sustainer of the yajnic web of existence, running extended throughout cosmic divinities and humanity, which is invoked, enkindled and sustained by Rohita, Lord Supreme Self-Refulgent, let us serve and sustain among ourselves and between ourselves, Mother Nature and the divine Speech.
Translation
May we obtain the blessings of that eternl law-maker of this world to whom the offerings are made. He is the thread spun out by the priests and extended to the divine powers. He is thus the perfecter of the cosmic sacrifice. (See also Re. X.57.2)
Translation
May I, the performer of Yajna always receive into my know ledge for my benefit that thread which is the means of all good actions Yajna etc., and is stretched out into the forces concerned with Yajna or into natural and supra-natural forces of cosmic order.
Translation
May we obtain the Adorable God, Who perfecteth our sacrifice and pervades all the worlds through His subtlety.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६०−(यः) परमात्मा (यज्ञस्य) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारस्य (प्रसाधनः) प्रकर्षेण साधकः (तन्तुः) सूत्रात्मा यथा (देवेषु) इन्द्रियेषु लोकेषु विद्वत्सु च (आततः) समन्ताद्विस्तृतः (तम्) परमात्मानम् (आहुतम्) समन्ताद् गृहीतम् (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥
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