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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    53

    सूर्य॒स्याश्वा॒ हर॑यः केतु॒मन्तः॒ सदा॑ वहन्त्य॒मृताः॑ सु॒खं रथ॑म्। घृ॑त॒पावा॒ रोहि॑तो॒ भ्राज॑मानो॒ दिवं॑ दे॒वः पृष॑ती॒मा वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑स्य । अश्वा॑: । हर॑य: । के॒तु॒ऽमन्त॑: । सदा॑ । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒मृता॑: । सु॒ऽखम् । रथ॑म् । घृ॒त॒ऽपावा॑ । रोहि॑त: । भ्राज॑माना: । दिव॑म् । दे॒व: । पृष॑तीम् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यस्याश्वा हरयः केतुमन्तः सदा वहन्त्यमृताः सुखं रथम्। घृतपावा रोहितो भ्राजमानो दिवं देवः पृषतीमा विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यस्य । अश्वा: । हरय: । केतुऽमन्त: । सदा । वहन्ति । अमृता: । सुऽखम् । रथम् । घृतऽपावा । रोहित: । भ्राजमाना: । दिवम् । देव: । पृषतीम् । आ । विवेश ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 24
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्यस्य) सबके चलानेवाले [परमेश्वर] के (अश्वाः) व्यापक (केतुमन्तः) विज्ञानमय (अमृताः) अमर [अविनाशी वा पुरुषार्थी] (हरयः) स्वीकारयोग्य गुण (रथम्) रमणयोग्य संसार को (सुखम्) सुख से (सदा) सदा (वहन्ति) ले चलते हैं। (घृतपावा) सेचन सामर्थ्य [वृद्धि] की रक्षा करनेवाले (भ्राजमानः) प्रकाशमान (देवः) ज्ञानवान् (रोहितः) सबको उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (दिवम्) व्यवहारकुशल (पृषतीम्) सींचनेवाली [प्रकृति] में (आ विवेश) प्रवेश किया है ॥२४॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा के नियमों से यह संसार चल रहा है, वही परमात्मा प्रकृति में प्रवेश करके उसे चेष्टा देता है ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(सूर्यस्य) सर्वप्रेरकस्य परमेश्वरस्य (अश्वाः) अशू व्याप्तौ-क्वन्। व्यापकाः (हरयः) स्वीकरणीया गुणाः (केतुमन्त,) चायः की। उ० १।७४। चायृ पूजानिशामनयोः-तु। केतुः प्रज्ञानाम-निघ० ३।९। विज्ञानमयाः (सदा) (वहन्ति) गमयन्ति (अमृताः) अमरणाः। पुरुषार्थयुक्ताः (सुखम्) सुखेन (रथम्) म० २१। रमणयोग्यं संसारम् (घृतपावा) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। घृत+पा रक्षणे-वनिप्। सेचनबलस्य रक्षकः (रोहितः) सर्वोत्पादकः (भ्राजमानः) प्रकाशमानः (दिवम्) व्यवहारकुशलम् (देवः) ज्ञानवान् (पृषतीम्) सेचनकुशलां प्रकृतिम् (आ विवेश) प्रविष्टवान् ॥

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    विषय

    सूर्यस्य अश्वा:

    पदार्थ

    १. (सूर्यस्य) = सूर्य के (अश्वा:) = किरणरूप (अश्व हरयः) = हमारे सब रोगों का हरण करनेवाले हैं। (केतुमन्त:) = प्रकाशवाले ये किरणरूप (अश्व अमृताः) [न मृतं येभ्यः] = हमें मृत्यु व रोगों से बचाते हैं और इसप्रकार (रथम्) = शरीर-रथ को (सुखं वहन्ति) = [ख-इन्द्रियाँ] उत्तम इन्द्रियोंवाला बनाकर वहन करते हैं। उद्यन्नादित्यः कृमीन् हन्ति निम्लोचन हन्तु रश्मिभिः'। २. (घृतपावा) = इन सूर्यादि पिण्डों में दीप्ति का रक्षण करनेवाला (रोहित:) = वह तेजस्वी (भाज्रमानः) = दीप्त होता हुआ (देव:) = प्रकाशमय प्रभु (दिवम्) = इस प्रकाशमय (द्युलोक) = धुलोकस्थ सूर्य तथा (पृषतीम्) = इस 'लोहित शुक्ल, कृष्ण' [रज, सत्त्व, तमवाली] चित्रित प्रकृति में (आविवेश) = प्रविष्ट हो रहा है। वस्तुतः प्रभु से ही इन प्राकृतिक पिण्डों को बह-वह 'विभूति, श्री व क'' प्राप्त हो रहे हैं।

    भावार्थ

    सूर्य की किरणें हमारे शरीर-रथ को नीरोग बनानेवाली हैं। सूर्य में इस दीप्ति को प्रभु ही स्थापित करते हैं। प्रभु प्रत्येक प्राकृतिक पिण्ड में प्रविष्ट हुए-हुए उस-उस श्री को वहाँ प्राप्त कराते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (हरयः) अन्धकार का हरण करने वाले, (केतुमन्तः) रोग हटाने वाले या ज्ञान के साधनभूत, (अमृताः) जल सम्बन्धी (सूर्यस्य अश्वाः) सूर्य के अश्व अर्थात् रश्मियां, (सदा रथं सुखं वहन्ति) सदा सूर्यरूपी रथ का वहन सुख पूर्वक कर रही हैं। (घृतपावा) जल का पान करने वाला, (भ्राजमानः) प्रदीप्त हुआ, (रोहितः देवः) ओषधियों का रोहन करने वाला या द्युलोक पर आरूढ़ हुआ सूर्य-देव (पृषतीम्१) नक्षत्रों और तारा रूपी विन्दुओं से युक्त विविधवर्णा (दिवम) द्यौ में (आ विवेश) प्रविष्ट हुआ है।

    टिप्पणी

    [हरयः = हृञ् हरणे। केतु= कित निवासे, रोगापनयने च, अर्थात् चिकित्सक रूप। तथा केतुः प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। अमृताः= अमृतम् उदकनाम (निघं० १।१२), तद्वन्तः “अर्शआदिभ्योऽच्" (अष्टा० ५।२।१२७)। घृतम् उदकनाम (निघं० १।१२)। पृषती= विन्दुमती, पृषत्= बिन्दुः (उणा० २।८५)। सूर्य॑स्य रथम्= सूर्यम् (विकल्पे षष्ठी)]। [१. अथवा "पृषती" का अर्थ यदि नदी ही अभिप्रेत हो, तो पूर्वोक्त मन्त्रों में समन्वय की दृष्टि से "पृषती" द्वारा आकाश गङ्गा का ग्रहण करना चाहिये। सूर्य का स्थान वस्तुत: आकाश गङ्गा है… यह वैज्ञानिक तथ्य है। यथा “The milky way (आकाश गङ्गा) is the mothor of the sun" पृष्ठ १२, १४। “The milky way is the great mother of the sun” पृष्ठ १४; milky way to be the suns path, पृष्ठ १५; the milky way as the path of the sun, पृष्ठ ९ , (Popular Hindu Astronomy, द्वारा कालीनाथ मुकरजी, संस्करण १९६९)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Just as the radiant light-horses of the sun’s chariot, nectarous flag-bearers of solar power, draw on the comfortable chariot of the sun, and the sun, Rohita, generous and refulgent, vests the light rays and pervades the heavenly regions, sprinkling the earth from there with the ghrta of energy and heat of life, so do the people, policies and programmes of the nation, radiant flag bearers and motive forces of the social order and the rule of governance, always draw the nation’s chariot of peace and nectarous glory without relent, and the ruling leader, nation’s genius, blazing in majesty, generous and creative, sprinkling the earth with ghrta showers of peace and prosperity, pervades, informs and inspires the nation and her children with the pride and dignity of enlightened Being.

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    Translation

    Immortal coursers of the sun, golden and bright, draw the Chariot always with ease. The divine ascendant sun, enjoyer of butter, enters the speckled sky blazing radiant.

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    Translation

    The refulgent, immortal, disseminating rays smoothly carry and spread the light-store of the sun. Resplendent sun, purifying everything through its light, emitting rays everywhere enters in the heavenly region which is of various colours.

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    Translation

    The All-pervading, Wise, Immortal attributes of God, draw on for ever the light-rolling beautiful chariot of the world. God, the Guardian of knowledge. Refulgent, hath entered into the serviceable multi hued Matter,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(सूर्यस्य) सर्वप्रेरकस्य परमेश्वरस्य (अश्वाः) अशू व्याप्तौ-क्वन्। व्यापकाः (हरयः) स्वीकरणीया गुणाः (केतुमन्त,) चायः की। उ० १।७४। चायृ पूजानिशामनयोः-तु। केतुः प्रज्ञानाम-निघ० ३।९। विज्ञानमयाः (सदा) (वहन्ति) गमयन्ति (अमृताः) अमरणाः। पुरुषार्थयुक्ताः (सुखम्) सुखेन (रथम्) म० २१। रमणयोग्यं संसारम् (घृतपावा) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। घृत+पा रक्षणे-वनिप्। सेचनबलस्य रक्षकः (रोहितः) सर्वोत्पादकः (भ्राजमानः) प्रकाशमानः (दिवम्) व्यवहारकुशलम् (देवः) ज्ञानवान् (पृषतीम्) सेचनकुशलां प्रकृतिम् (आ विवेश) प्रविष्टवान् ॥

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