अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
61
वि मि॑मीष्व॒ पय॑स्वतीं घृ॒ताचीं॑ दे॒वानां॑ धे॒नुरन॑पस्पृगे॒षा। इन्द्रः॒ सोमं॑ पिबतु॒ क्षेमो॑ अस्त्व॒ग्निः प्र स्तौ॑तु॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥
स्वर सहित पद पाठवि । मि॒मी॒ष्व॒ । पय॑स्वतीम् । घृ॒ताची॑म् । दे॒वाना॑म् । धे॒नु: । अन॑पऽस्पृक् । ए॒षा । इन्द्र॑: ।सोम॑म् । पि॒ब॒तु॒ । क्षेम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒ग्नि: । प्र । स्तौ॒तु॒ । वि । मृध॑: । नु॒द॒स्व॒ ॥१.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
वि मिमीष्व पयस्वतीं घृताचीं देवानां धेनुरनपस्पृगेषा। इन्द्रः सोमं पिबतु क्षेमो अस्त्वग्निः प्र स्तौतु वि मृधो नुदस्व ॥
स्वर रहित पद पाठवि । मिमीष्व । पयस्वतीम् । घृताचीम् । देवानाम् । धेनु: । अनपऽस्पृक् । एषा । इन्द्र: ।सोमम् । पिबतु । क्षेम: । अस्तु । अग्नि: । प्र । स्तौतु । वि । मृध: । नुदस्व ॥१.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] (पयस्वतीम्) उत्तम अन्नवाली और (घृताचीम्) जल पहुँचानेवाली [प्रकृति] को (वि) विविध प्रकार (मिमीष्व) नाप, (एषा) वह (देवानाम्) विद्वानों की (अनपस्पृक्) न रोकनेवाली (धेनुः) तृप्ति करनेवाली [गौ के समान] है। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् [यह मनुष्य] (सोमम्) अमृत (पिबतु) पान करे, (क्षेमः) सकुशल (अस्तु) होवे, और (अग्निः) ज्ञानवान् [यह पुरुष] (प्र स्तौतु) स्तुति करे, तू (मृधः) वैरियों को (वि नुदस्व) निकाल दे ॥२७॥
भावार्थ
जो मनुष्य सृष्टि के बीच खोज लगाते चले चलते हैं, वे निर्विघ्न होकर ऐश्वर्य प्राप्त करके सकुशल रहके और परमात्मा के गुण गाते हुए शत्रुओं का नाश करते हैं ॥२७॥
टिप्पणी
२७−(वि) विविधम् (मिमीष्व) माङ् माने शब्दे च। मानेन प्राप्नुहि (पयस्वतीम्) अन्नवतीम् (घृताचीम्) घृतं जलमञ्चयति प्रापयति या तां प्रकृतिम् (देवानाम्) विदुषाम् (धेनुः) अ० ३।१०।१। धि धारणे तर्पणे च-न। धेनुर्धवतेर्वा धिनोतेर्वा-निरु० ११।४२। तर्पयित्री (अनपस्पृक्) स्पृश स्पर्शने-क्विप्। अप्रतिबाधिका (एषा) प्रकृतिः (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् मनुष्यः (सोमम्) अमृतम्। मोक्षसुखम् (पिबतु) अनुभवतु (क्षेमः) सकुशलः (अस्तु) (अग्निः) विद्वान् पुरुषः (प्र) प्रकर्षेण (स्तौतु) प्रशंसतु (वि) पृथग्भावे (मृधः) हिंसकान् (नुदस्व) प्रेरय ॥
विषय
पयस्वती घृताची 'धेनुः'
पदार्थ
१. वेदरूपी धेनु ज्ञानदुग्ध द्वारा हमारा पोषण करती है। इस (पयस्वतीम्) = ज्ञानदुग्ध देनेवाली दुग्ध द्वारा हमारा पोषण करनेवाली तथा (घृताचीम्) = [घृ दीसौ क्षरणे] मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति द्वारा हमारे जीवनों को अलंकृत करनेवाली वेदधेनु को विमिमीष्व-विशिष्टरूप से निर्मित कर उसका उच्चारण कर [मा-to roar, sound]। (एषा) = यह (देवानां धेनु:) = देवों-देववृत्ति के पुरुषों की गाय है। (अनपस्पृक्) = यह पृथक् करने योग्य नहीं-सदा स्पर्श के योग्य है। वेद का स्वाध्याय तो नित्य करना ही है। २. एक (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष को चाहिए कि वह (सोमं पिबतु) = सोमशक्ति का शरीर में पान करे । सुरक्षित सोम ही ज्ञानाग्नि का इंधन बनकर ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है, तभी वेदधेनु के दुग्धपान की रुचि उत्पन्न होती है। इसप्रकार हमारा (क्षेमः अस्तु) = कल्याण-ही कल्याण हो। (अग्निः प्रस्तौतु) = यह प्रगतिशील जीव प्रभु का स्तवन करे और (मृधः विनुदस्व) = संहार कर देनेवाले इन काम, क्रोध, लोभरूप शत्रुओं को दूर धकेल दे। प्रभु-स्तवन कामादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कराएगा, इसप्रकार सोम का रक्षण सम्भव होगा और ज्ञानानि की दीति होकर वेदधेनु के ज्ञानदुग्ध के पान की क्षमता बढ़ेगी।
भावार्थ
वेदधेनु का ज्ञानदुग्ध हमारा आप्यायन करता है, यह मलों के क्षरण व ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करानेवाली है। जितेन्द्रिय पुरुष सोम का रक्षण करता हुआ ज्ञानाग्नि को दीस करता है। प्रभु-स्तवन करता हुआ यह काम, क्रोधादि शत्रुओं को अपने से दूर रखता है।
भाषार्थ
(पयस्वतीम्) दूध देने वाली, (घृताचीम्) घृत से व्याप्त [राज्य भूमि] को (विमिमीष्व) ठीक प्रकार से माप, (एषा) यह राज्य भूमि (देवानाम्) व्यवहारियों की (अनपस्पृग्) स्पर्श से अपगत न होने वाली (धेनुः) दुधार गौ रूप है। (इन्द्रः) सम्राट् (सोमम्) इस के दूध का (पिवतु) पान करे और कराये, (क्षेमः अस्तु) ताकि सब का कुशल हो, (अग्निः) क्षात्राग्नि (प्रस्तौतु) शत्रु के प्रति युद्ध का प्रस्ताव करे, और तू हे सम्राट् (मृधः) शत्रु संग्रामकारियों को (विनुदस्व) धकेलने का प्रबन्ध कर।
टिप्पणी
[देवानाम् = दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहार...। अतः देव = व्यवहार कुशल व्यापारी। सोम = दूध, तथा पृथिवी धेनु द्वारा प्राप्य अन्य पदार्थ। "सोमो दुग्धाभिरक्षाः" (ऋ० ९।१०७।९), तथा "सोमो दुग्धाभ्यः क्षरति" (निरक्त ५।१।३), अर्थात् दुही गई गौओं से सोम क्षरित होता है। सोम उपलक्षक है अन्य पदार्थों का भी। अनपस्पृग्= अ+ नुद् + अप + स्पृग्) (स्पृश्)। स्पर्श से अपगत न होने वाली अर्थात् प्रापणीया। अग्निः = क्षात्राग्निः१, (अथर्व० ६।७६।१-४)]। [१. क्षात्राग्नि मन्त्रों के अर्थ- "जो इस अग्नि की सेवा करते हैं, और इसे देखने के लिये इस का आधान करते हैं, उन की यह अग्नि जिह्वाओं द्वारा प्रदीप्त होती, और हृदय से उठती है" ||१|| मैं आयु (जीवन) के लिये, सम्यक् तपाने वाली अग्नि के चरण का आश्रय लेता हूं (आलभे)। सत्यान्वेषी व्यक्ति जिस के धूम को मुख से उठता हुआ देखता है" ॥२॥ "क्षत्रिय द्वारा आधान की गई इस अग्नि की समिधा [आत्मसमर्पण] को जो जानता है वह मृत्यु के लिये कुटिल मार्ग [युद्ध] पर अपना चरण नहीं रखता" ||३|| "चारों ओर से घेरने वाले शत्रु इस का हनन नहीं कर पाते, समीपस्थ शत्रुओं को तो यह अवगत अर्थात् जानता तक नहीं, जो ज्ञानी क्षत्रिय कि जीवन के लिये इस अग्नि का नाम ग्रहण करता है, नाम जपता है" ||४|अतः क्षात्राग्नि= निज देश की रक्षा के लिये क्षत्रिय के हृदय का उत्साह तथा आक्रमणकारियों पर क्रोध।]
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे ज्ञानवन् ! (पयस्वतीम्) दूध वाली, (घृताचीम्) घृत से पूर्ण जिस प्रकार गाय को आदर की दृष्टि से देखा जाता है उसी प्रकार तू (पयस्वतीम्) पयः = ऋत से पूर्ण (घृताचीम्) तेज से युक्त ऋतम्भरा विशोका, ज्योतिष्मती प्रज्ञा को (वि मिमीष्व) विशेष रूप से ज्ञान कर, प्राप्त कर। (एषा) वह (देवानाम्) देवों, विद्वानों और इन्द्रियों की (अनपस्पृक्) सदा साथ रहने वाली, एवं अक्षय अथवा सुशील (धेनुः) रस पान कराने वाली कामधेनु के समान है। (इन्द्रः) ऐश्वर्य, विभूति सम्पन्न आत्मा (सोमं पिबतु) सोम पान करे। (क्षेमः अस्तु) कल्याण हो, (अग्निः) ज्ञानी प्रकाशमान योगी पुरुष उस दशा में (प्र स्तौतु) उत्तम रीति से प्रभु की स्तुति करे और इस प्रकार तू (मृधः) चित्त के भीतरी शत्रुओं को (वि नुदस्व) विविध उपायों से दूर कर।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘स्पृगेषाम्’ इति पैप्प० सं०। विमिमे त्वा पयस्वतीं देवानां धेनुं सुदुधामनपस्कुरन्तीम्। ‘इन्द्रः सोमम् पितु क्षेमोस्तु नः’ इति आप० श्रौ० सू०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O man, O scholar, O ruler, this earth, this nature, is the sacred cow of the Divinities. Study it, know it, measure it for your purpose, it is overflowing with water, milk and ghrta. Let Indra, the ruler and the nation of humanity, drink the nectar soma of her gifts. Let Agni, the leading scholar, study and describe it with praise and exaltation. O man, drive out all enemies opposotions, polluters and destroyers of earth and the environment.
Translation
Prepare delightfully the milk-yielding, butterrgiving (cow); she is a never-refusing milch-cow of the enlightened ones. May the resplendent aspirant drink the gladdening juice. May Peace and well-being be here. Let the adorable leader start praises; may you thrust the enemies away.
Translation
O Man ! you keep in your possession the cow and the land which gives milk, and ghee. This is the never-reluctant milch cow of the Yajnadevas. The sun drinks the liquid portion of herbs and plants. Let there be peace for all. Let the man effulgent with knowledge pray Divinity and you drive away your internal enemies from your within.
Translation
O learned person, achieve intellect full of truth and lustre. It is the inseparable companion of the learned like a milch-cow. May the exalted soul attain to the joy of salvation. Ours be peace and safety. Let the learned yogi praise God. Expel thy internal foes.
Footnote
internal foes: Lust, anger, avarice, pride, infatuation
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−(वि) विविधम् (मिमीष्व) माङ् माने शब्दे च। मानेन प्राप्नुहि (पयस्वतीम्) अन्नवतीम् (घृताचीम्) घृतं जलमञ्चयति प्रापयति या तां प्रकृतिम् (देवानाम्) विदुषाम् (धेनुः) अ० ३।१०।१। धि धारणे तर्पणे च-न। धेनुर्धवतेर्वा धिनोतेर्वा-निरु० ११।४२। तर्पयित्री (अनपस्पृक्) स्पृश स्पर्शने-क्विप्। अप्रतिबाधिका (एषा) प्रकृतिः (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् मनुष्यः (सोमम्) अमृतम्। मोक्षसुखम् (पिबतु) अनुभवतु (क्षेमः) सकुशलः (अस्तु) (अग्निः) विद्वान् पुरुषः (प्र) प्रकर्षेण (स्तौतु) प्रशंसतु (वि) पृथग्भावे (मृधः) हिंसकान् (नुदस्व) प्रेरय ॥
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