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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 48
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    52

    स्व॒र्विदो॒ रोहि॑तस्य॒ ब्रह्म॑णा॒ग्निः समि॑ध्यते। तस्मा॑द्घ्रं॒सस्तस्मा॑द्धि॒मस्तस्मा॑द्य॒ज्ञोजा॑यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒:ऽविद॑: । रोहि॑तस्य । ब्रह्म॑णा । अ॒ग्नि: । सम् । इ॒ध्य॒ते॒ । तस्मा॑त् । घ्रं॒स: । तस्मा॑त् । हि॒म: । तस्मा॑त् । य॒ज्ञ: । अ॒जा॒य॒त॒ १.४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वर्विदो रोहितस्य ब्रह्मणाग्निः समिध्यते। तस्माद्घ्रंसस्तस्माद्धिमस्तस्माद्यज्ञोजायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्व:ऽविद: । रोहितस्य । ब्रह्मणा । अग्नि: । सम् । इध्यते । तस्मात् । घ्रंस: । तस्मात् । हिम: । तस्मात् । यज्ञ: । अजायत १.४८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 48
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्वर्विदः) सुख पहुँचानेवाले (रोहितस्य) सबके उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर के (ब्रह्मणा) वेदज्ञान द्वारा (अग्नि) अग्नि [सूर्य आदि] (सम् इध्यते) यथावत् प्रकाशित होता है। (तस्मात्) उसी [परमेश्वर] से (घ्रंसः) ताप (तस्मात्) उसी से (हिमः) शीत और (तस्मात्) उसी से (यज्ञः) यज्ञ [संयोग-वियोग व्यवहार] (अजायत) उत्पन्न हुआ है ॥४८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के सामर्थ्य से ही सूर्य-चन्द्र आदि पदार्थ उत्पन्न होकर ताप शीत, संयोग-वियोग द्वारा संसार का उपकार करते हैं ॥४८॥

    टिप्पणी

    ४८−(स्वर्विदः) सुखप्रापकस्य (रोहितस्य) सर्वोत्पादकस्य परमेश्वरस्य (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अग्निः) सूर्यादिः (समिध्यते) यथाविधि दीप्यते (तस्मात्) परमेश्वरात् (घ्रंसः) तापः (तस्मात्) (हिमः) शीतधर्मः (तस्मात्) (यज्ञः) संयोगवियोगव्यवहारः (अजायत) उदपद्यत ॥

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    विषय

    ब्रह्मणानि समिध्यते

    पदार्थ

    १. (स्वर्विदः) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले (रोहितस्य) = सदाप्रवृद्ध प्रभु के (ब्रह्मणा) = वेदज्ञान से-वेदज्ञान के अनुसार अथवा मन्त्रोच्चारणपूर्वक (अग्निः समिध्यते) = यज्ञवेदि में अग्नि समिद्ध किया जाता है, (तस्मात्) = उस रोहित प्रभु से ही (घंस:) = दीप्ति का कारणभूत यह सूर्य, (तस्मात् हिमः) = उस प्रभु से ही शीतल ज्योत्स्नावाला चन्द्र तथा (तस्मात्) = उस प्रभु से ही (यज्ञः) = यह सृष्टि यज्ञ (अजायत) = विशिष्टरूप से प्रादुर्भूत होता है।

    भावार्थ

    प्रभु से आदिष्ट मन्त्रों द्वारा यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि समद्धि किया जाता है। वे प्रभु ही सूर्य व चन्द्र द्वारा इस सृष्टि-यज्ञ को चला रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (स्वर्विदः रोहितस्य) उपतप्त द्युलोक में विद्यमान या आनन्दाभिज्ञ सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर की (अग्निः) द्युलोकाग्नि, (ब्रह्मणा) सर्वतो महान् परब्रह्म द्वारा (समिध्यते) प्रदीप्त की जाती है। (तस्मात्) उस द्युलोकाग्नि से (घ्रंसः) गर्म सूर्याग्नि (तस्मात्) उस सूर्याग्नि से (हिमः) शीत चन्द्राग्नि (तस्मात्) उस से (यज्ञः) संसार यज्ञ (मन्त्र ४७), (अजायत) रचाया जाता है।

    टिप्पणी

    [यद्यपि मूलतः रोहित और ब्रह्म एक ही चेतन-तत्त्व है, तो भी कर्म भेद से एक ही चेतन-तत्त्व के दो नाम दर्शाए हैं, ये कर्म हैं आरोहण और द्युलोकाग्नि का उत्पादन। द्युलोकाग्नि की उत्पत्ति के पश्चात् उस पर आरोहण सम्भव है। स्वर्विदः= स्वः (सुखविशेष, आनन्द) + विद् (ज्ञाने)]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (स्वर्विदः) प्रकाश और तापदायक सूर्य को अपने वश करने हारे (रोहितस्य) सर्वोत्पादक, तेजस्वी प्रजापति के (ब्रह्मणा) ब्रह्म-वेद के ज्ञान के अनुसार अथवा उसकी महान् शक्ति से (अग्निः) यह महान् अग्नि सूर्य (सम्-इध्यते) प्रदीप्त होता है। (तस्मात्) उससे ही (घ्रंसः) यह ग्रीष्म और (तस्माद्) उससे ही (हिमः) शति और (तस्मात्) उससे ही (यज्ञः) यह महान् संवत्सररूप यज्ञ (अजायत) उत्पन्न हुआ करता है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘समाहितः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    The original creative fire of the existential yajna of Rohita, lord and spirit of cosmic bliss, is kindled, raised and conducted with simultaneous chant of Vedic hymns. And from that yajnic fire arises heat, thence cold, and thence arises the whole process of the yajna of creative evolution.

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    Translation

    With the knowledge of the ascendant Lord, the bestower of light, the fire divine is enkindled. From that the heat, from that the cold, and from that the sacrifice is born.

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    Translation

    The fire of the sun, the celestial one is enkindled by Supreme Being. Ghansa the hot one comes into existence from it, Hima, the cold one emerges out from it and Yajna comes out from it.

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    Translation

    Through the Vedic knowledge of God, the Giver of happiness and the Creator of all objects, is kindled the light of heaven. From Him the heat, from Him the Cold, from Him the sacrifice (Yajna) was born

    Footnote

    Light of heaven, Sun.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४८−(स्वर्विदः) सुखप्रापकस्य (रोहितस्य) सर्वोत्पादकस्य परमेश्वरस्य (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अग्निः) सूर्यादिः (समिध्यते) यथाविधि दीप्यते (तस्मात्) परमेश्वरात् (घ्रंसः) तापः (तस्मात्) (हिमः) शीतधर्मः (तस्मात्) (यज्ञः) संयोगवियोगव्यवहारः (अजायत) उदपद्यत ॥

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