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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    वि रोहि॑तो अमृशद्वि॒श्वरू॑पं समाकुर्वा॒णः प्र॒रुहो॒ रुह॑श्च। दिवं॑ रू॒ढ्वा म॑ह॒ता म॑हि॒म्ना सं ते॑ रा॒ष्ट्रम॑नक्तु॒ पय॑सा घृ॒तेन॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । रोहि॑त: । अ॒मृ॒श॒त् । वि॒श्वऽरू॑पम् । स॒म्ऽआ॒कु॒र्वा॒ण: । प्र॒ऽरुह॑: । रुह॑: । च॒ । दिव॑म् । रू॒ढ्वा । म॒ह॒ता । म॒हि॒म्ना । सम् । ते॒ । रा॒ष्ट्रम् । अ॒न॒क्तु॒ । पय॑सा । घृ॒तेन॑ ॥१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि रोहितो अमृशद्विश्वरूपं समाकुर्वाणः प्ररुहो रुहश्च। दिवं रूढ्वा महता महिम्ना सं ते राष्ट्रमनक्तु पयसा घृतेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । रोहित: । अमृशत् । विश्वऽरूपम् । सम्ऽआकुर्वाण: । प्रऽरुह: । रुह: । च । दिवम् । रूढ्वा । महता । महिम्ना । सम् । ते । राष्ट्रम् । अनक्तु । पयसा । घृतेन ॥१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    हे राजन् ! वह (रोहितः) सर्वोत्पादक परमात्मा (प्ररुहः) उत्कष्ट प्रदेशों (रुहः च) और उनके उत्पन्न करने के सामर्थ्यों को (सम् आकुर्वाणः) एकत्र करता हुआ (विश्वरूपम्) इस समस्त विश्व के स्वरूप को (वि अमृशत्) नाना प्रकार से बनाता है। और (महता) बड़ी भारी (महिग्ना) सामर्थ्य से (दिवं) द्यलोक के भी ऊपर सूर्य के समान (रुढवा) अधिष्ठाता रूप से आरूढ़ होकर (ते) तेरे राष्ट्र, इस देदीप्यमान जगत् को (पयसा) अन्न आदि पुष्टिकारक पदार्थ या अपने वीर्य और (घृतेन) तेज से (सम् अनक्तु) भली प्रकार प्रकाशित करे। इसी प्रकार राजा भी अपने राष्ट्र में (प्ररुहः रुहः च सम् आकुर्वाणः) नाना प्रकार के ऊँचे नीचे पदों को बनाकर समस्त राष्ट्र के कार्य पर विचार करता है। और अपनी शक्ति से उच्चपद प्राप्त करके अपने तेज और स्नेह से राष्ट्र को समृद्ध और सम्पन्न करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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