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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    सूर्य॒स्याश्वा॒ हर॑यः केतु॒मन्तः॒ सदा॑ वहन्त्य॒मृताः॑ सु॒खं रथ॑म्। घृ॑त॒पावा॒ रोहि॑तो॒ भ्राज॑मानो॒ दिवं॑ दे॒वः पृष॑ती॒मा वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑स्य । अश्वा॑: । हर॑य: । के॒तु॒ऽमन्त॑: । सदा॑ । व॒ह॒न्ति॒ । अ॒मृता॑: । सु॒ऽखम् । रथ॑म् । घृ॒त॒ऽपावा॑ । रोहि॑त: । भ्राज॑माना: । दिव॑म् । दे॒व: । पृष॑तीम् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यस्याश्वा हरयः केतुमन्तः सदा वहन्त्यमृताः सुखं रथम्। घृतपावा रोहितो भ्राजमानो दिवं देवः पृषतीमा विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यस्य । अश्वा: । हरय: । केतुऽमन्त: । सदा । वहन्ति । अमृता: । सुऽखम् । रथम् । घृतऽपावा । रोहित: । भ्राजमाना: । दिवम् । देव: । पृषतीम् । आ । विवेश ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 24

    भावार्थ -
    (सूर्यस्य) जिस प्रकार सूर्य के (हरयः) शीघ्रगामी किरण (केतुमन्तः) ज्ञान कराने वाले प्रकाश से युक्त होकर (अमृताः) अमृत स्वरूप होकर (सदा) नित्य (रथम्) सूर्य के पिण्ड को (सुखं वहन्ति) सुखपूर्वक धारण करते हैं और जिस प्रकार सूर्य के समान तेजस्वी राजा के (केतुमन्तः हरयः रथं सुर्ख वहन्ति) झण्डों से सुशोभित घोड़े रथ को सुखपूर्वक ढोते हैं, उसी प्रकार उस सबके प्रकाशक (सूर्यस्य) सूर्यरूप परमात्मा के (केतुमन्तः हरयः) ज्ञान साधनों से युक्त ‘हरि’ अज्ञानहारी जीव (अमृताः) सदा अमर रह कर (सुखं रथं वहन्ति) सुखपूर्वक अपना देह धारण करते हैं। और (भ्राजमानः) प्रकाशमान (रोहितः) रोहित सर्वोत्पादक (देवः) देव, परमेश्वर (दिवं) सूर्य जिस प्रकार द्यौलोक में प्रवेश करता है उसी प्रकार वह स्वयं (घृतपावा) प्रकाश और ज्ञान का पालक होकर (पृषतीम् आ विवेश) उस चित्रवर्णी, प्रकृति के भीतर प्रवेश करता है। उसमें अपनी शक्ति आधान करता है। राजा के पक्ष में पृषती, समृद्ध प्रज्ञा है। शेष स्पष्ट है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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