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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 41
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    अ॒वः परे॑ण प॒र ए॒नाव॑रेण प॒दा व॒त्सं बिभ्र॑ती॒ गौरुद॑स्थात्। सा क॒द्रीची॒ कं स्वि॒दर्धं॒ परा॑गा॒त्क्व स्वित्सूते न॒हि यू॒थे अ॒स्मिन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व: । परे॑ण । प॒र: । ए॒ना। अव॑रेण । प॒दा । व॒त्सम् । बिभ्र॑ती । गौ: । उत् । अ॒स्था॒त् । सा । क॒द्रीची॑ । कम् । स्वि॒त् । अर्ध॑म् । परा॑ । अ॒गा॒त् । क्व᳡। स्वि॒त् । सू॒ते॒ । न॒हि । यू॒थे । अ॒स्मिन् ॥१.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवः परेण पर एनावरेण पदा वत्सं बिभ्रती गौरुदस्थात्। सा कद्रीची कं स्विदर्धं परागात्क्व स्वित्सूते नहि यूथे अस्मिन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव: । परेण । पर: । एना। अवरेण । पदा । वत्सम् । बिभ्रती । गौ: । उत् । अस्थात् । सा । कद्रीची । कम् । स्वित् । अर्धम् । परा । अगात् । क्व। स्वित् । सूते । नहि । यूथे । अस्मिन् ॥१.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 41

    भावार्थ -
    (गौः वत्सम्) गौ जिस प्रकार अपने (पदा) चरण से (वत्सं बिभ्रती) ‘वत्स’ बछड़े को धारण करती हुई उसको अपना रसपान कराती है उसी प्रकार (परेण अवः) परम पद मोक्ष से या दूरसे दूर लोक से (अवः) समीप से समीपतम स्थान तक और (एना अवरेण परः) इस समीपतम स्थान से अतिदूर प्रदेश तक व्यापक (वत्सं) बसनेहारे संसार या जीव लोक को (पदा) अपने ज्ञान या व्यापक सामर्थ्य से (बिभ्रती) धारण करती हुई (गौः) वह परमेश्वरी शक्तिरूप कामधेनु (उद् अस्थात्) खड़ी है। (सा) वह परम शक्ति (कदृीची) किस प्रकार की है ? (कं स्विद् अर्धम्) किस महान् समृद्ध परम पुरुष में (परा अगात्) आश्रित है ? और (क स्वित्) वह कहां, किस आश्रय पर (सूते) सृष्टि उत्पन्न करती है (नहि अस्मिन् यूथे) वह ‘गौ’ परमेश्वरी शक्तिरूप कामधेनु इस सामान्य गोयूथ अर्थात् विकाररूप महदादि में से नहीं है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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