अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - आर्षी निचृद्गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
यं त्वा॒ पृष॑ती॒ रथे॒ प्रष्टि॒र्वह॑ति रोहित। शु॒भा या॑सि रि॒णन्न॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठयम. । त्वा॒ । पृष॑ती । रथे॑ । प्रष्टि॑: । वह॑ति । रो॒हि॒त॒ । शु॒भा । या॒सि॒ । रि॒णन् । अ॒प: ॥१.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वा पृषती रथे प्रष्टिर्वहति रोहित। शुभा यासि रिणन्नपः ॥
स्वर रहित पद पाठयम. । त्वा । पृषती । रथे । प्रष्टि: । वहति । रोहित । शुभा । यासि । रिणन् । अप: ॥१.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 21
विषय - ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ -
हे (रोहित) रोहित, उच्च पदारूढ़ ! तेजस्विन् ! लाल पोशाक में सुसज्जित राजन् ! (यम् त्वा) जिस तुझको (रथे) रथ में लगी (पृषती) चित्र विचित्र वर्ण की (प्रष्टिः) घोड़ी (वहति) ले जाती है और सूर्य जिस प्रकार (अपः रिणन्) मेघ के जलों को परे हटाता हुआ सुन्दर किरणों से फैलता है उसी प्रकार तू (अपः) समस्त प्रजाओं को (रिणन्) परे हटाता हुआ (शुभा) अति सुन्दर रूप से (यासि) राष्ट्र में गमन करता है।
अध्यात्म में—हे (रोहित) उत्पन्न जीव या उच्च-गति प्राप्त जीव ! (रथे यं त्वा पृषती प्रष्टिः वहति) रथ = रमण साधन इस देह में रसों का स्पर्श करने वाली व्यापक चिति शक्ति तुझे ऊर्ध्व मार्ग में ले जाती है तब (अपः रिणन्) समस्त कर्मों, कर्मबन्धनों को पार करके (शुभा यासि) शुभ मार्ग, कल्याण मार्ग, मोक्ष में गमन करता है।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘यदेषां पृषती’ (तृ०) ‘यान्ति शुभ्रा रिणन्नपः’ इति ऋ०। तत्र पुनर्वत्सः काण्व ऋषिः। मरुतो देवताः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
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