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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उदी॑रय पि॒तरा॑जा॒र आ भग॒मिय॑क्षति हर्य॒तो हृ॒त्त इ॑ष्यति। विव॑क्ति॒ वह्निः॑ स्वप॒स्यते॑म॒खस्त॑वि॒ष्यते॒ असु॑रो॒ वेप॑ते म॒ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र॒य॒ । पि॒तरा॑ । जाRर: । आ । भग॑म् । इय॑क्षति । ह॒र्य॒त: । हृ॒त्त: । इ॒ष्य॒ति॒ । विव॑क्ति । वह्नि॑: । सु॒ऽअ॒प॒स्यते॑ । म॒ख: । त॒वि॒ष्यते॑ । असु॑र: । वेप॑ते । म॒ती ॥१.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरय पितराजार आ भगमियक्षति हर्यतो हृत्त इष्यति। विवक्ति वह्निः स्वपस्यतेमखस्तविष्यते असुरो वेपते मती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ईरय । पितरा । जाRर: । आ । भगम् । इयक्षति । हर्यत: । हृत्त: । इष्यति । विवक्ति । वह्नि: । सुऽअपस्यते । मख: । तविष्यते । असुर: । वेपते । मती ॥१.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 23

    भावार्थ -
    (जारः) जार—रात्रि का विनाश करने वाला आदित्य (आ) जिस प्रकार (भगम्) अपने सेवन करने योग्य प्रकाश को सर्वत्र फैलाता है उसी प्रकार हे मनुष्य ! तू भी अपने (भगम्) ऐश्वर्य को (पितरौ) अपने माता पिता के प्रति (उत्-ईरय) प्रेरित कर, उनको प्रदान कर। जो पुरुष (इयक्षति) यज्ञ या पूजा करना चाहता है वह उनके प्रति (हर्यतः) परम अभिलाषावान् होकर पूजनीय इष्टदेव को (हृत्तः) अपने हृदय से (इष्यति) चाहा करता है। उसी अवसर पर (वह्निः) ज्ञान का वहन करने वाला, अग्नि के समान ज्ञानी परमेश्वर स्वयं (विवक्ति) नाना प्रकार के उपदेश करता है। और सायं (मखः) वह पूजनीय (सु-अपस्पते) शुभ कर्म में प्रेरित करता है और वह स्वयं (असुरः) प्राणों का प्रदाता (तविष्यते) बढ़ाता है और (मती) अपने स्तम्भन बल से (वेपते) दुष्टों को कंपाता है। या (मती=मत्या वेपते) अपने मति अर्थात् ज्ञान संकल्प से ही समस्त संसार को प्रेरित करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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