अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 53
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्वष्टा॑दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णोति॒ तेने॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति। य॒मस्य॑ मा॒ताप॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥
स्वर सहित पद पाठत्वष्टा॑ । दु॒हि॒त्रे । व॒ह॒तुम् । कृ॒णो॒ति॒ । तेन॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सम् । ए॒ति॒ । य॒मस्य॑ । मा॒ता । प॒रि॒ऽउ॒ह्यमा॑ना । म॒ह: । जा॒या । विव॑स्वत: । न॒ना॒श॒ ॥१.५३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वष्टादुहित्रे वहतुं कृणोति तेनेदं विश्वं भुवनं समेति। यमस्य मातापर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश ॥
स्वर रहित पद पाठत्वष्टा । दुहित्रे । वहतुम् । कृणोति । तेन । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । सम् । एति । यमस्य । माता । परिऽउह्यमाना । मह: । जाया । विवस्वत: । ननाश ॥१.५३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 53
विषय - सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ -
(त्वष्टा) समस्त जगत् का स्रष्टा, (दुहित्रे) समस्त लोकों को पूर्ण करने वाली या कामधेनु के समान ईश्वर के लोक सर्जन की इच्छा को पूर्ण करनेवाली प्रकृति से (वहतुम्) इस महान् ब्रह्माण्ड रूप भार को जिसको वह स्वयं उठाये हैं (कृणोति) बनाता है। (तेन) उसी कारण (इदम्) यह (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) लोक (सम् एति) बना हुआ है। (यमस्य) सर्वनियन्ता परमेश्वर की (माता) जगन्निर्मात्री प्रकृति (परि-उह्यमाना) सब प्रकार से धारण की गई वह (महः जाया) बड़ी भारी उत्पादक शक्ति (विवस्वतः) विविध रूपों में बने लोकों के स्वामी उस प्रभु की शक्ति से ही (ननाश) विकार को प्राप्त होती है, अर्थात् अप्रकट से प्रकट और सूक्ष्मरूप से स्थूल में आती है।
टिप्पणी -
‘कृणोति इतीदं’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
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