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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 56
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उ॒शन्त॑स्त्वेधीमह्यु॒शन्तः॒ समि॑धीमहि। उ॒शन्नु॑श॒त आ व॑ह पि॒तॄन्ह॒विषे॒अत्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शन्त॑: । त्वा॒ । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन्त॑: । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । उ॒शन् । उ॒श॒त: । आ । व॒ह॒ । पि॒तॄन् । ह॒विषे॑ । अत्त॑वे ॥१.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशन्तस्त्वेधीमह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशत आ वह पितॄन्हविषेअत्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उशन्त: । त्वा । इधीमहि । उशन्त: । सम् । इधीमहि । उशन् । उशत: । आ । वह । पितॄन् । हविषे । अत्तवे ॥१.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 56

    भावार्थ -
    हे परमेश्वर ! हम (त्वा) तेरी (उशन्तः) कामना करते हुए, तुझे चाहते हुए (इधीमहि) तुझे ही प्रदीप्त करते हैं, हृदय में तुझे चेताते हैं। और (उशन्तः) तेरी कामना करते हुए (सम् इधी मही) तुझे भली प्रकार प्रदीप्त करते हैं। हे (उशन्) कान्तिमय, हे सर्वकाम ! तू ही (उशतः) नाना कामना करते हुए (पितृन्) सर्वपालक, पिता पितामह आदि को (हविषे अत्तवे) अपने प्राप्त कर्म फल के भोग करने के लिये (आ वह) अन्य लोक को प्राप्त करा, पहुँचा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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