अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 35
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
यस्मि॑न्दे॒वावि॒दथे॑ मा॒दय॑न्ते वि॒वस्व॑तः॒ सद॑ने धा॒रय॑न्ते। सूर्ये॒ज्योति॒रद॑धुर्मा॒स्यक्तून्परि॑ द्योत॒निं च॑रतो॒ अज॑स्रा ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । दे॒वा: । वि॒दथे॑ । मा॒दय॑न्ते । वि॒वस्व॑त: । सद॑ने । धा॒रय॑न्ते । सूर्ये॑ । ज्योति॑: । अद॑धु: । मा॒सि । अ॒क्तून् । प॑रि । द्यो॒त॒निम् । च॒र॒त॒: । अज॑स्रा ॥१.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्देवाविदथे मादयन्ते विवस्वतः सदने धारयन्ते। सूर्येज्योतिरदधुर्मास्यक्तून्परि द्योतनिं चरतो अजस्रा ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । देवा: । विदथे । मादयन्ते । विवस्वत: । सदने । धारयन्ते । सूर्ये । ज्योति: । अदधु: । मासि । अक्तून् । परि । द्योतनिम् । चरत: । अजस्रा ॥१.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 35
विषय - सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ -
(यस्मिन्) जिस (विदथे) प्राप्त करने योग्य या ज्ञान-स्वरूप परमेश्वर में (देवाः) ज्ञानी पुरुष (मादयन्ते) हर्ष और आनन्द प्राप्त करते हैं। और वे जिसके आश्रय पर रह कर (विवस्वतः) विवस्वान्, नाना प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त परमेश्वर के (सदने) सदन या शरण में (धारयन्ते) अपने आप को स्थित करते हैं। उस (सूर्ये) सबके प्रेरक सूर्य के सूर्य समान प्रकाशक परमेश्वर में ही (ज्योतिः अदधुः) परम प्रकाश की कल्पना करते हैं। उसी (मासि) सबके निर्माण कर्त्ता प्रभु में (अक्तून्) चन्द्र में रात्रियों के समान समस्त व्यक्त होने वाले पदार्थों को (अदधुः) आश्रित मानते हैं और (द्योतनिम् परि) जिस प्रकाशवान् के आश्रय पर (अजस्त्रा) निरन्तर गतिशील सूर्य और चन्द्र दोनों भी (चरतः) अपने अपने मार्ग में गति कर रहे हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
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