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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 38
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - परोष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    शव॑सा॒ ह्यसि॑श्रु॒तो वृ॑त्र॒हत्ये॑न वृत्र॒हा। म॒घैर्म॒घोनो॒ अति॑ शूर दाशसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शव॑सा । हि । असि॑ । श्रु॒त: । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑न । वृ॒त्र॒ऽहा । म॒घै: । म॒घोन॑: । अति॑ । शू॒र॒ । दा॒श॒सि॒ ॥१.३८।


    स्वर रहित मन्त्र

    शवसा ह्यसिश्रुतो वृत्रहत्येन वृत्रहा। मघैर्मघोनो अति शूर दाशसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शवसा । हि । असि । श्रुत: । वृत्रऽहत्येन । वृत्रऽहा । मघै: । मघोन: । अति । शूर । दाशसि ॥१.३८।

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 38

    भावार्थ -
    हे इन्द्र ! परमेश्वर ! तू (वृत्रहत्येन) आवरणकारी, ज्ञान के विघ्नरूप ‘वृत्र’ के नाश कर देने में समर्थ (शवसा) बल से (श्रुतः असि) सर्वत्र प्रसिद्ध है। तू ही (मघोनः) परमैश्वर्यवाले समस्त धनाढ्य पुरुषों को (मघैः) धनों से, ऐश्वर्यों ही से तू, हे (शूर) शूर वीर्यवन्! (अति) अतिक्रमण करके (दाशसि) समस्त जीवों को जीवन, अन्न और धन प्रदान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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