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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 31
    ऋषिः - सप्तधृतिर्वारुणिर्ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - विराट् गायत्री, स्वरः - षड्जः
    105

    महि॑ त्री॒णामवो॑ऽस्तु द्यु॒क्षं मि॒त्रस्या॑र्य॒म्णः। दु॒रा॒धर्षं॒ वरु॑णस्य॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    महि॑। त्री॒णाम्। अवः॑। अ॒स्तु॒। द्यु॒क्षम्। मि॒त्रस्य॑। अ॒र्य॒म्णः। दु॒रा॒धर्ष॒मिति॑ दुःऽआ॒धर्ष॑म्। वरु॑णस्य ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महि त्रीणामवो स्तु द्युक्षम्मित्रस्यार्यम्णः । दुराधर्षँवरुणस्य ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महि। त्रीणाम्। अवः। अस्तु। द्युक्षम्। मित्रस्य। अर्यम्णः। दुराधर्षमिति दुःऽआधर्षम्। वरुणस्य॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 31
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स किमर्थः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे ब्रह्मणस्पते! तव कृपया मित्रस्यार्यम्णो वरुणस्य च त्रीणां सकाशान्नोऽस्माकं द्युक्षं दुराधर्षं महदवोऽस्तु॥३१॥

    पदार्थः

    (महि) महत् (त्रीणाम्) त्रयाणां सकाशात्। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति [अष्टा॰भा॰वा॰१.४.९] त्रेस्त्रय [अष्टा॰६.३.४६] इति त्रयादेशो न। (अवः) रक्षणादिकम् (अस्तु) भवतु (द्युक्षम्) द्यौर्नीतिः प्रकाशः क्षियति निवसति यस्मिंस्तत् (मित्रस्य) बाह्याभ्यन्तरस्थस्य प्राणस्य (अर्यम्णः) य ऋच्छति नियच्छत्याकर्षणेन पृथिव्यादीन् स सूर्यलोकस्तस्य। श्वन्नुक्षन्पूषन्॰ (उणा॰१.१५९) अनेनायं निपातितः। (दुराधर्षम्) दुःखेनाधर्षितुं योग्यं दृढम् (वरुणस्य) वायोर्जलस्य वा। वरुण इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५.४) अनेन प्राप्तिसाधनो गृह्यते। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.३७) व्याख्यातः॥३१॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद् ‘ब्रह्मणस्पते नः’ इति पदद्वयानुवृत्तिर्विज्ञेया। मनुष्यैस्सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यः स्वस्यान्येषां च न्यायेन रक्षणं कृत्वा राज्यपालनं कार्यमिति॥३१॥

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    विषयः

    पुनः स किमर्थः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ।।

    सपदार्थान्वयः

     हे ब्रह्मणस्पते ! तव कृपया मित्रस्य बाह्याभ्यन्तरस्थस्य प्राणस्य अर्य्यम्णः  य ऋच्छति=नियच्छत्याकर्षणेन पृथिव्यादीन् स सूर्यलोकस्तस्य वरुणस्य वायोर्जलस्य वा त्रीणां त्रयाणां (सकाशात् ) सकाशात् नः=अस्माकं द्युक्षं द्यौर्नीतिः प्रकाशः क्षियति=निवसति यस्मिंस्तत् दुराधर्षं दुःखेनाधार्षितुं योग्यं दृढं [महि]=महद् श्रवो रक्षणादिकम् अस्तु भवतु ॥ ३ । ३१ ।।

    [अनुवृत्तिमाह--]

    पदार्थः

    (महि) महत् (त्रीणाम्) त्रयाणां सकाशात् । अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति त्रेस्त्रय इति त्रयादेशो न (अवः) रक्षणादिकम् (अस्तु) भवतु (द्युक्षम्) द्यौर्नीतिः प्रकाशः क्षियति=निवसति यस्मिंस्तत् (मित्रस्य) बाह्याभ्यन्तरस्थस्य प्राणस्य (अर्यम्णः) य ऋच्छति=नियच्छत्याकर्षणेन पृथिव्यादीन्स सूर्यलोकस्तस्य ।श्वन्नुक्षन्पूषन० ॥ उ० १ ।१५९ ॥ अनेनायं निपातितः (दुराधर्षम्) दुःखेनाधर्षितुं योग्यं दृढ़म् (वरुणस्य) वायोर्जलस्य वा । वरुण इति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ५ । ४ ॥ न प्राप्तिसाधनो गृह्यते ॥ अयं मन्त्रः शत० २ ।३ ।४ ।३७ व्याख्यातः ॥ ३१ ॥

    भावार्थः

    अत्र पूर्वस्मान्मन्त्राद् 'ब्रह्मणस्पते', 'नः' इति पदद्वयानुवृत्तिर्विज्ञेया ।

    [हे ब्रह्मणस्पते ! तव कृपया मित्रस्यार्यम्णो वरुणस्य त्रीणां सकाशात्, नः=अस्माकं द्युक्षं......[महि] महदवोऽस्तु]

    मनुष्यैस्सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यः स्वस्यान्येषां च न्यायेन रक्षणं कृत्वा राज्यपालनं कार्यमिति ॥ ३ । ३१ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    भा० पदार्थ:-- द्युक्षम्=राज्यम् ॥

    विशेषः

    सत्यधृतिर्वारुणिः। आदित्य:=ईश्वरः ॥ विराड् गायत्री। षड्ज: ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उसकी प्रार्थना किसलिये करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्वर! आपकी कृपा से (मित्रस्य) बाहर वा भीतर रहने वाला जो प्राणवायु तथा (अर्यम्णः) जो आकर्षण से पृथिवी आदि पदार्थों को धारण करने वाला सूर्य्यलोक और (वरुणस्य) जल (त्रीणाम्) इन तीनों के प्रकाश से (नः) हम लोगों के (द्युक्षम्) जिस में नीति का प्रकाश निवास करता है वा (दुराधर्षम्) अतिकष्ट से ग्रहण करने योग्य दृढ़ (महि) बड़े वेदविद्या की (अवः) रक्षा (अस्तु) हो॥३१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (ब्रह्मणस्पते, नः) इन दो पदों की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। मनुष्यों को सब पदार्थों से अपनी वा औरों की न्यायपूर्वक् रक्षा करके यथावत् राज्य का पालन करना चाहिये॥३१॥

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    विषय

    महि-द्युक्ष-दुराधर्ष

    पदार्थ

    १. सत्यधृति वारुणि ने गत मन्त्र में ‘अदान व हिंसा’ से ऊपर उठने का निश्चय किया तो प्रस्तुत मन्त्र में वह ‘मित्रता, जितेन्द्रियता व अद्वेष’ की भावना को धारण करने का निश्चय करता है। वह कहता है कि ( त्रीणाम् ) = तीन का ( मित्रस्य अर्यम्णः वरुणस्य ) = मित्र, अर्यमा व वरुण का ( अवः ) = रक्षण ( अस्तु ) = हमें प्राप्त हो। 

    २. ‘मित्र, अर्यमा और वरुण’ ये तीन देवता क्रमशः [ क ] [ ञिमिदा स्नेहने, मीतेः त्रायते ] सबके साथ स्नेह करना, पाप से अपने को बचाना, [ ख ] [ अरीन् गच्छति ] काम-क्रोधादि शत्रुओं को जीतकर जितेन्द्रिय बनना, तथा [ ग ] [ वारयति ] द्वेषादि का निवारण करना’ इन भावनाओं के प्रतीक हैं। ‘सत्यधृति’ निश्चय करता है कि वह सबके साथ स्नेह करेगा, जितेन्द्रिय बनेगा और द्वेष से अपने को अवश्य बचाएगा। 

    ३. मन्त्रक्रम में यह भी स्पष्ट है कि इन देवों का रक्षण क्रमशः महि, द्युक्षं, दुराधर्षम् है। मित्र का रक्षण ‘महि’ महनीय है, आदर के योग्य है। यह मनुष्य को महान् बनाता है। सबसे स्नेह से वर्तनेवाला व्यक्ति सबका महनीय होता है। 

    ४. अर्यमा का रक्षण ‘द्युक्षम्’ है। जितेन्द्रिय बनने से हम ( द्यु ) = ज्योति में ( क्ष ) = निवास करनेवाले होते हैं। जितेन्द्रियता से हमारी बुद्धि व ज्ञान का विकास होता है। अजितेन्द्रिय पुरुष का ज्ञान उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसेकि कच्चे घड़े से पानी चू जाता है। 

    ५. वरुण का रक्षण ‘दुराधर्ष’ है। द्वेष का निवारण करनेवाला व्यक्ति औरों के लिए अधर्षणीय हो जाता है—कोई भी इसका पराभव नहीं कर पाता।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम सबके साथ स्नेह से वर्त्तते हुए महनीय बनें, जितेन्द्रिय बनकर ज्योतिर्मय मस्तिष्कवाले हों और द्वेष से ऊपर उठकर अपराजेय बन जाएँ।

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    विषय

    फिर उस परमेश्वर से किसलिये प्रार्थना करनी चाहिये इस विषय का उपदेश किया जाता है।

    भाषार्थ

    हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्वर ! आपकी कृपा से (मित्रस्य) बाहर और अन्दर विद्यमान प्राण (अर्यम्णः) आकर्षण के द्वारा पृथिवी आदि का नियमन करने वाला सूर्य (वरुणस्य) वायु वा जल इन (त्रीणाम्) तीनों से (नः) हमें (द्युक्षम्) नीति और प्रका के निवास योग्य राज्य का (दुराधर्षम्) दृढ़ (मही) महान् (अव:) रक्षण आदि (अस्तु) प्राप्त हो ॥ ३ ॥ ३१ ॥

    भावार्थ

    यहाँ पूर्व मन्त्र से 'ब्रह्मणस्पते' और 'नः' इन दो पदों की अनुवृत्ति समझें ।

    मनुष्य सब पदार्थों से अपनी और दूसरों की न्याय से रक्षा करके राज्य का पालन करें ।। ३ । ३१ ।।

    प्रमाणार्थ

    (त्रीणाम्) यहाँ वेद में सब विधियां विकल्प से होती हैं, इस नियम से 'त्रेस्त्रयः' [अ० ७ । १ । ५३] सूत्र से 'त्रि' को 'त्रय' आदेश नहीं है । (अर्यम्णः) 'अर्यमा' शब्द' श्वन्नुक्षन्पूषन्० उणा० ( १ । १५९ ) सूत्र से निपातन द्वारा सिद्ध है। (वरुणस्य) 'वरुण' शब्द निघं० ( ५ । ४ ) में पद-नामों में पढ़ा है। इससे प्राप्ति साधन अर्थ गृहीत होता है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ । ३ । ४ । ३७ ) में की गई है । ३ । ३१ ।।

    भाष्यसार

    ईश्वर प्रार्थना किसलिये--प्रार्थना करने से ईश्वर कृपा करके प्राण, सूर्य लोक, वरुण (वायु वा जल) इन तीनों से हमारे दृढ़ एवं महान् राज्य की रक्षा करता है ।

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    विषय

    सुव्यवस्थित राष्ट्र।

    भावार्थ

    ( मित्रस्य ) मित्र , ( अर्यम्णः ) अर्यमा और ( वरुणस्य ) वरुण ( त्रीणाम् ) इन तीनों का ( महि )बड़ा ( द्युक्षम् ) ज्ञान प्रकाश और न्याय का आश्रयभूत ( दुराधर्षम् ) एवं अमेद्य, अछेद्य ( अव: ) पालन या राज्य, प्रजापालन कार्य ( अस्तु ) हो । राज्य शासन में मित्र सबको मरने से त्राण करने वाला, रक्षा विभाग, अर्यमा, न्यायविभाग, वरुण, शत्रुदमन एवं योद्धृवर्ग इन तीनों द्वारा किये गये प्रजा पालन के कार्य नीति न्यायपूर्वक और शत्रुओं और द्रोहियों द्वारा अभेद्य हों जिसको कोई तोड़ न सके। भौतिक पक्ष में प्राण, सूर्य और बल इनका पालन कार्य हमें सदा प्राप्त हो ॥ शत० २। ३ । ४ । ३७ ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सत्यधृतिर्वारुणिऋषिः । आदित्यः । विराड् गायत्री । षड्जः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील (ब्रह्मणस्पते, नः) या दोन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे, असे समजले पाहिजे. माणसांनी सर्व पदार्थांद्वारे आपले व इतरांचे न्यायपूर्वक रक्षण करून राज्याचे यथायोग्य पालन केले पाहिजे.

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    विषय

    पुनश्‍च, परमेश्‍वराची प्रार्थना का करावी, याविषयी पुढील मंत्रात प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्‍वरा, (मित्रस्थ) आमच्या बाहेरील आणि आंतील प्राणवायु, तसेच (अर्यम्ण:) आकर्षण शक्तीद्वारे पृथ्वी आदी पदार्थांना धारण करणारा सूर्य आणि (वरूणस्य) जल, म्हणजे प्राणवायु, सूर्य आणि जल, या (त्रीणाम्) तीन्हीच्या प्रभाव आणि उपयोगामुळे (न:) आमच्या (द्युक्षम्) नीतीमान व (दुराधर्षम्) कष्टाने साध्य होणारी पण (महि) महान् वदेविद्येचे (अव:) दृढतेने रक्षण (अस्तु) होवो, यासाठी आम्ही तुझ्या कृपेची याचना करीत आहोत. ॥31॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात या पूर्वीच्या (मानः श ्ँ सो-) मंत्रातून ‘ब्रह्मणस्पते’ आणि ‘न:’ या दोन पदांची अनुवृत्ती घेतली आहे (या मंत्रात नाहीत , पण पूर्वीचा संदर्भ व अर्थ आवश्यक असल्यामुळे हे दोन शब्द या मंत्रात अर्थाकरिता घेतले आहेत) मनुष्यांनी सर्व पदार्थाद्वारे स्वत:चे तसेच इतरांचे न्यायाप्रमाणे रक्षण व पोषण करावे आणि राज्याचे पालन करावे. (स्वत:ची, इतरांची व राज्याची वृद्धी करावी) ॥31॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God, may we get the great, wise and unassailable protection of the three forces of nature, the water, the sun and the air.

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    Meaning

    Lord of the universe, may the generous and inviolable protection of the three, Mitra (pranic energy both internal and external), Varuna (air and water), and Aryama (sun and stability) be ours for the divine knowledge of the Veda, illuminating, irresistible, and great.

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    Translation

    May we have great, wealth-giving and unassailable protection from the three, the sun, the wind and the waters. (1)

    Notes

    Mitra, the sun. Aryaman, the wind. Varuna, the waters.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স কিমর্থঃ প্রার্থনীয় ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    তবুও তাঁর প্রার্থনা কীজন্য করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ব্রহ্মস্পতেঃ) জগদীশ্বর ! আপনার কৃপাবলে (মিত্রস্য) বাহিরে ও ভিতরে নিবাসকারী যে প্রাণবায়ু তথা (অর্য়ম্ণঃ) যে আকর্ষণ দ্বারা পৃথিবী ইত্যাদি পদার্থ সকলকে ধারণকারী সূর্য্যলোক এবং (বরুণস্য)জল (ত্রীণাম্) এই তিনের প্রকাশ দ্বারা (নঃ) আমাদিগের (দ্যুক্ষম্) যাহাতে নীতির প্রকাশ নিবাস করে অথবা (দুরাধর্ষম্) অতিকষ্টপূর্বক গ্রহণ করিবার যোগ্য দৃঢ় (মহি) মহান্ বেদবিদ্যার (অবঃ) রক্ষা (অস্তু) হউক ॥ ৩১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে পূর্ব মন্ত্র হইতে (ব্রহ্মণস্পতে, নঃ) এই দুই পদের অনুবৃত্তি জানিতে হইবে । মনুষ্যগণকে সকল পদার্থ দ্বারা নিজের অথবা অপরের ন্যায়পূর্বক রক্ষা করিয়া যথাবৎ রাজ্য পালন করা উচিত ॥ ৩১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মহি॑ ত্রী॒ণামবো॑ऽস্তু দ্যু॒ক্ষং মি॒ত্রস্যা॑র্য়॒ম্ণঃ । দু॒রা॒ধর্ষং॒ বরু॑ণস্য ॥ ৩১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মহি ত্রীণামিত্যস্য সপ্তধৃতির্বারুণির্ঋষিঃ । আদিত্যো দেবতা । বিরাড্ গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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