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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 41
    ऋषि: - आसुरिर्ऋषिः देवता - वास्तुरग्निः छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    36

    गृहा॒ मा बि॑भीत॒ मा वे॑पध्व॒मूर्जं॒ बिभ्र॑त॒ऽएम॑सि। ऊर्जं॒ बिभ्र॑द्वः सु॒मनाः॑ सुमे॒धा गृ॒हानैमि॒ मन॑सा॒ मोद॑मानः॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गृहाः॑। मा। बि॒भी॒त॒। मा। वे॒प॒ध्व॒म्। ऊर्ज॑म्। बिभ्र॑तः। आ। इ॒म॒सि॒। ऊर्ज॑म्। बिभ्र॑त्। वः॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। सु॒मे॒धा इति॑ सुऽमे॒धाः। गृ॒हान्। ए॒मि॒। मन॑सा। मोद॑मानः ॥४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गृहा मा बिभीत मा वेपध्वमूर्जम्बिभ्रत एमसि । ऊर्जम्बिभ्रद्वः सुमनाः सुमेधा गृहाऐमि मनसा मोदमानः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गृहाः। मा। बिभीत। मा। वेपध्वम्। ऊर्जम्। बिभ्रतः। आ। इमसि। ऊर्जम्। बिभ्रत्। वः। सुमना इति सुऽमनाः। सुमेधा इति सुऽमेधाः। गृहान्। एमि। मनसा। मोदमानाः॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 41
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ गृहाश्रमानुष्ठानमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे ब्रह्मचर्येण कृतविद्या गृहाश्रमिणो मनुष्या ऊर्जं बिभ्रतो गृहा यूयं गृहाश्रमं प्राप्नुत, तदनुष्ठानान्मा बिभीत मा वेपध्वं च। ऊर्जं बिभ्रतो वयं युष्मान् गृहानेमसि समन्तात् प्राप्नुमः। वो युष्माकं मध्ये स्थित्वैवं गृहाश्रमे वर्त्तमानः सुमनाः सुमेधा मनसा मोदमान ऊर्जं बिभ्रत् सन्नहं सुखान्येमि नित्यं प्राप्नुयाम्॥४१॥

    पदार्थः

    (गृहाः) गृह्णन्ति ब्रह्मचर्याश्रमानन्तरं गृहाश्रमं ये मनुष्यास्तत्संबुद्धौ (मा) निषेधार्थे (बिभीत) भयं कुरुत (मा) प्रतिषेधे (वेपध्वम्) कम्पध्वम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (बिभ्रतः) धारयन्तः (आ) समन्तात् (इमसि) प्राप्नुमः। अत्र इदन्तो मसि [अष्टा॰७.१.४६] इतीदादेशः। (ऊर्जम्) अनेकविधं बलम् (बिभ्रत्) धारयन् (वः) युष्मान् (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सः (सुमेधाः) सुष्ठु मेधा धारणावती सङ्गमिका धीर्यस्य सः (गृहान्) गृहाश्रमस्थान् विदुषः (आ) समन्तात् (एमि) प्राप्नुयाम्। अत्र लिङर्थे लट्। (मनसा) विज्ञानेन (मोदमानः) हर्षोत्साहयुक्तः॥ एतदादिमन्त्रत्रयम् शत॰२.४.१.१४ व्याख्यातम्॥४१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः पूर्णब्रह्मचर्याश्रमं संसेव्य युवावस्थायां स्वयंवरविधानेन स्वतुल्यस्वभावविद्यारूपबलवतीं सुपरीक्षितां स्त्रीमुद्वाह्य शरीरात्मबलं संपाद्य सन्तानोत्पत्तिं विधाय सर्वैः साधनैः सद्व्यवहारेषु स्थातव्यम्। नैव केनापि गृहाश्रमानुष्ठानात् कदाचित् भेतव्यं कम्पनीयं च। कुतः? सर्वेषां सद्व्यवहाराणामाश्रमाणां च गृहाश्रमो मूलमस्त्यत एष सम्यगनुष्ठातव्यः, नैतेन विना मनुष्यवृद्धी राज्यसिद्धिश्च जायते॥४१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में गृहस्थाश्रम के अनुष्ठान का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे ब्रह्मचर्याश्रम से सब विद्याओं को ग्रहण किये गृहाश्रमी तथा (ऊर्जम्) शौर्यादिपराक्रमों को (बिभ्रतः) धारण किये और (गृहाः) ब्रह्मचर्याश्रम के अनन्तर अर्थात् गृहस्थाश्रम को प्राप्त होने की इच्छा करते हुए मनुष्यो! तुम गृहस्थाश्रम को यथावत् प्राप्त होओ उस गृहस्थाश्रम के अनुष्ठान से (मा बिभीत) मत डरो तथा (मा वेपध्वम्) मत कम्पो तथा पराक्रमों को धारण किये हुए हम लोग (गृहान्) गृहस्थाश्रम को प्राप्त हुए तुम लोगों को (एमसि) नित्य प्राप्त होते रहें और (वः) तुम लोगों में स्थित होकर इस प्रकार गृहस्थाश्रम में वर्त्तमान (सुमनाः) उत्तम ज्ञान (सुमेधाः) उत्तम बुद्धि युक्त (मनसा) विज्ञान से (मोदमानः) हर्ष, उत्साह युक्त (ऊर्जम्) अनेक प्रकार के बलों को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ मैं अत्यन्त सुखों को (एमि) निरन्तर प्राप्त होऊँ॥४१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को पूर्ण ब्रह्मचर्याश्रम को सेवन करके युवावस्था में स्वयंवर के विधान की रीति से दोनों के तुल्य स्वभाव, विद्या, रूप, बुद्धि और बल आदि गुणों को देखकर विवाह कर तथा शरीर-आत्मा के बल को सिद्ध कर और पुत्रों को उत्पन्न करके सब साधनों से अच्छे-अच्छे व्यवहारों में स्थित रहना चाहिये तथा किसी मनुष्य को गृहास्थाश्रम के अनुष्ठान से भय नहीं करना चाहिये, क्योंकि सब अच्छे व्यवहार वा सब आश्रमों का यह गृहस्थाश्रम मूल है। इस गृहस्थाश्रम का अनुष्ठान अच्छे प्रकार से करना चाहिये और इस गृहस्थाश्रम के विना मनुष्यों की वा राज्यादि व्यवहारों की सिद्धि कभी नहीं होती॥४१॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी पूर्ण ब्रह्मचर्याचे पालन करून युवावस्थेत स्वयंवर पद्धतीने (स्त्री-पुरुष) दोघांनी स्वभाव, विद्या, रूप, बुद्धी व बल इत्यादी गुण पाहून विवाह करावा. शरीर व आत्मा यांचे बल वृद्धिंगत करून पुत्र उत्पन्न करावेत. सर्व साधनांनी युक्त होऊन चांगल्या कर्मात स्थित असावे. कोणत्याही माणसाला गृहस्थाश्रमाचे भय वाटता कामा नये. कारण सर्व चांगले व्यवहार व सर्व आश्रमांचे मूळ गृहस्थाश्रमच आहे. म्हणून गृहस्थाश्रमाचे पालन चांगल्या प्रकारे केले पाहिजे. गृहस्थाश्रमाखेरीज माणसांची किंवा राज्यव्यवहाराची सिद्धी कधीही होऊ शकत नाही.

    English (2)

    Meaning

    Fear not, nor tremble Ye, O householders. We, bearing strength, come to Ye. May I bearing strength, intelligent and happy, rejoicing in my mind, enjoy all pleasures and approach the householders.

    Meaning

    Masters of the house, inmates of the home, fear not, tremble not. Bubbling with energy and power, go forward. With energy, power and enthusiasm, with a happy heart and high intelligence, I come home rejoicing at heart, for you.

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