अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
क्र॒व्याद॑म॒ग्निं श॑शमा॒नमु॒क्थ्यं प्र हि॑णोमि प॒थिभिः॑ पितृ॒याणैः॑। मा दे॑व॒यानैः॒ पुन॒रा गा॒ अत्रै॒वैधि॑ पि॒तृषु॑ जागृहि॒ त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठक्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒ग्निम् । श॒श॒मा॒नम् । उ॒क्थ्य᳡म् । प्र । हि॒णो॒मि॒ । प॒थिऽभि॑: । पि॒तृ॒ऽयानै॑: । मा । दे॒व॒ऽयानै॑: । पुन॑: । आ । गा॒: । अत्र॑ । ए॒व । ए॒धि॒ । पि॒तृषु॑ । जा॒गृ॒हि॒ । त्वम् ॥२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रव्यादमग्निं शशमानमुक्थ्यं प्र हिणोमि पथिभिः पितृयाणैः। मा देवयानैः पुनरा गा अत्रैवैधि पितृषु जागृहि त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठक्रव्यऽअदम् । अग्निम् । शशमानम् । उक्थ्यम् । प्र । हिणोमि । पथिऽभि: । पितृऽयानै: । मा । देवऽयानै: । पुन: । आ । गा: । अत्र । एव । एधि । पितृषु । जागृहि । त्वम् ॥२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(शशमानम्) प्लुतगति से चलती हुई, (उक्थ्यम्) वैदिक सूक्तों में वर्णित (क्रव्यादम् अग्निम्) जीवितों के मांस के भक्षक अग्नि को (प्र हिणोमि) मैं दूर करता हूं। (पितृयाणैः पथिभिः) मातापिता जिन मार्गों पर चलते हैं उन मागों द्वारा। (देवयानैः) देवों अर्थात् सत्य मार्गों पर चलने वाले दिव्य जनों के मार्गों द्वारा तू ते क्रव्याद् (पुनः) बार-बार (मा आगाः) न आ, (अत्र एव) इस पितृमार्ग में ही (एधि) तू बनी रह, (पितृषु) माता पिताओं में (त्वम्) तू (जागृहि) जागरूक रह।
टिप्पणी -
[शशमानम्ः– भिन्न-भिन्न स्थानों में एक साथ मृत्युएं होती रहती हैं, क्रव्याद् मानो प्लुतगति से सर्वत्र पहुंच जाती है तथा प्लुतगति से बार-बार, आक्रमण करती है। पुनः = देवयानमार्गियों की मृत्यु एक बार होती है, बार-बार नहीं, क्योंकि वे चिरकाल के लिये मुक्त हो जाते हैं। शशमानम् =शश प्लुतगतौ]।