अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अ॒स्मिन्व॒यं संक॑सुके अ॒ग्नौ रि॒प्राणि॑ मृज्महे। अभू॑म य॒ज्ञियाः॑ शु॒द्धाः प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । व॒यम् । सम्ऽक॑सुके । अ॒ग्नौ । रि॒प्राणि॑ । मृ॒ज्म॒हे॒ । अभू॑म । य॒ज्ञिया॑: । शु॒ध्दा: । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्वयं संकसुके अग्नौ रिप्राणि मृज्महे। अभूम यज्ञियाः शुद्धाः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन् । वयम् । सम्ऽकसुके । अग्नौ । रिप्राणि । मृज्महे । अभूम । यज्ञिया: । शुध्दा: । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥२.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(अस्मिन्) इस (संकसुके अग्नौ) संकसुक अग्नि में (रिप्राणि) कुत्सित मलों को (मृज्महे) हम शुद्ध करते है, और (यज्ञियाः१ शुद्धा अभूम) यज्ञ करने योग्य शुद्ध हुए हैं, (नः) हमारी (आयूंषि) आयुधों को (प्रतारिषत्) संकसुक अग्नि बढ़ाएं।
टिप्पणी -
[शव को संकसुक अर्थात् श्मशानाग्नि में जला देने पर शव के कारण होने वाले गृह्य कुत्सित मल दूर हो जाते है। तदन्तर स्नान द्वारा शुद्ध हो कर गृह वासी यज्ञ करने के योग्य होते हैं, और यज्ञ द्वारा निज आयुओं को बढ़ाते हैं। रिप्रम् = कुत्सितम् (उणा० ५।५५, महर्षि दयानन्द)]। [१. यज्ञयोग्य हो कर यज्ञियाग्नि में यक्ष्मरोगनाशक ओषधियों की आहुतियां दे कर (मन्त्र ११) दीर्घायु को प्राप्त करना।]