अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 34
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
अ॑पा॒वृत्य॒ गार्ह॑पत्यात्क्र॒व्यादा॒ प्रेत॑ दक्षि॒णा। प्रि॒यं पि॒तृभ्य॑ आ॒त्मने॑ ब्र॒ह्मभ्यः॑ कृणुता प्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प॒ऽआ॒वृत्य॑ । गार्ह॑ऽपत्यात् । क्र॒व्य॒ऽअदा॑ । प्र । इ॒त॒ । द॒क्षि॒णा । प्रि॒यम् । पि॒तृऽभ्य॑: । आ॒त्मने॑ । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । :कृ॒णु॒त॒ । प्रि॒यम् ॥२.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपावृत्य गार्हपत्यात्क्रव्यादा प्रेत दक्षिणा। प्रियं पितृभ्य आत्मने ब्रह्मभ्यः कृणुता प्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपऽआवृत्य । गार्हऽपत्यात् । क्रव्यऽअदा । प्र । इत । दक्षिणा । प्रियम् । पितृऽभ्य: । आत्मने । ब्रह्मऽभ्य: । :कृणुत । प्रियम् ॥२.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 34
भाषार्थ -
(गार्हपत्यात्) गार्हपत्य कुण्ड से (अपावृत्य) हट कर, (क्रव्यादा) मांस भक्षक अग्नि के साथ (दक्षिणा) दक्षिण दिशा को (प्रेत) जाओ। और (पितृभ्यः आत्मने) पितरों के लिये तथा अपने लिये (प्रियम्) प्रिय कर्म (कृणुत) करो, (ब्रह्मभ्यः) वेद-वेत्ताओं के लिये (प्रियम्) प्रिय कर्म करो।
टिप्पणी -
[प्रिय कर्म है अन्त्येष्टि संस्कार। इस निमित्त गार्हपत्य कुण्ड से अग्नि का उद्धरण करो। अभी तक तो गार्हपत्य-अग्नि देव रूप थी, परन्तु जब इस का अन्त्येष्टि के लिये उद्धरण किया तो यह क्रव्याद् रूप हो गई, क्योंकि इस ने शव के मांस का भक्षण करना है। क्रव्याद् अग्नि को ले कर बस्ती के दक्षिण की ओर जाना चाहिये। दक्षिण में अन्त्येष्टि कर्म होना चाहिये। दक्षिण दिशा ह्रास क्रो, शक्ति के ह्रास को सूचित करती हैं। जैसे जैसे सूर्य दक्षिण की ओर ढलता जाता है वैसे-वैसे उस की शक्ति का ह्रास होता जाता है, अतः ह्रास क्रिया का अर्थात् 'अन्त्येष्टि का करना, दक्षिण दिशा में विहित है। अन्त्येष्टि, जीवनीय शक्ति के अत्यन्ततम ह्रास को सूचित करती है। जीवित अवस्था में व्यक्ति सब सम्बन्धियों को प्रिय होता है, परन्तु मृत होने पर सभी को उस की शवक्रिया ही प्रिय होती है। वेद-वेत्ताओं को भी उस अवस्था में शवक्रिया प्रिय होती है, माता पिता को भी और अपने-आप को भी यही क्रिया प्रिय होती है।]