अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
संक॑सुको॒ विक॑सुको निरृ॒थो यश्च॑ निस्व॒रः। ते ते॒ यक्ष्मं॒ सवे॑दसो दू॒राद्दू॒रम॑नीनशन् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽक॑सुक: । विऽक॑सुक: । नि॒:ऽऋ॒थ: । य: । च॒ । नि॒ऽस्व॒र: । ते । ते॒ । यक्ष्म॑म् । सऽवे॑दस: । दू॒रात् । दू॒रम् । अ॒नी॒न॒श॒न् ॥२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
संकसुको विकसुको निरृथो यश्च निस्वरः। ते ते यक्ष्मं सवेदसो दूराद्दूरमनीनशन् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽकसुक: । विऽकसुक: । नि:ऽऋथ: । य: । च । निऽस्वर: । ते । ते । यक्ष्मम् । सऽवेदस: । दूरात् । दूरम् । अनीनशन् ॥२.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(संकसुकः) सामूहिक अर्थात् परिवार में व्याप्त, घातक यक्ष्म रोग निवारक अग्नि, (विकसुकः) व्यक्ति गत, घातक यक्ष्मरोग की निवारक अग्नि, (निर्ऋथः) निकृष्ट आर्ति अर्थात् कष्ट दायक यक्ष्मरोग की निवारक अग्नि, (यः चः) और जो (निस्वरः) स्वरभङ्ग करने वाले यक्ष्मरोग की निवारक अग्नि है। (ते) वे अग्नियां (सवेदसः) मानो ऐकमत्य को प्राप्त हुई, (ते यक्ष्मम्) तेरे यक्ष्मरोग को (दूरात् दूरम्) दूर से भी दूर करें, और (अनीनशन्) उसे नष्ट करें।
टिप्पणी -
[संकसुकः = सम् (समूह) + कस (शासनम्); कसि गति शासनयोः (भ्वादि)। शासनम् = killer, destroyer (आप्टे)। अर्थात् समूह में व्याप्त, घातक यक्ष्मरोग सम्बन्धी। विकसुकः = व्यक्तिगत घातक यक्ष्मरोग सम्बन्धी। निर्ऋथः = "निः शेषेण ऋच्छति पीड़यतीति" (सायण, अथर्व० ६।९३।१) तथा "निकृष्टाम् आर्तिम् नाशम्" (सायण अथर्व० ८।४।१४)। अतः “निर्ऋथः"=पीड़ादायक और विनाश करने वाला यक्ष्मरोग, तत्सम्बन्धी निस्वरः=स्वरभङ्ग करने वाले स्वरयन्त्र सम्बन्धी यक्ष्मरोग तथा जिह्वा सम्बन्धी यक्ष्मरोग निवारक (अथर्व० २।३३।१)। ये चारों प्रकार के यक्ष्मरोग अग्निरूप हैं। अग्नि की तरह रोगी को खाते रहते हैं। इसलिये दाहक अग्नि और यक्ष्मरूपी अग्नि को, कहीं-कहीं मन्त्रों में अभेदरूप से भी वर्णित किया है, और भिन्न-भिन्न रूप में भी। वेद में "यक्ष्म" शब्द व्यापी अर्थ रखता है। अङ्ग की विकृतिमात्र में यक्ष्म शब्द का प्रयोग हुआ है। आंख, नाक, कान, मस्तिष्क, जिह्वा, ग्रीवा, रक्तनाड़ी, बाहु, हृदय, आन्त, गुदा, टांगों, घुटनों, अस्थि, मज्जा, हाथ, अङ्गुलियों, लोम, नख आदि किसी भी शरीराङ्ग के विकार में यक्ष्म शब्द प्रयुक्त हुआ है। (अथर्व० •२।३३।१-७); तथा (अथर्व० ९।८।१-२२)]।