अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त
यो नो॒ अश्वे॑षु वी॒रेषु॒ यो नो॒ गोष्व॑जा॒विषु॑। क्र॒व्यादं॒ निर्णु॑दामसि॒ यो अ॒ग्निर्ज॑न॒योप॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । अश्वे॑षु । वी॒रेषु॑ । य: । न॒: । गोषु॑ । अ॒ज॒ऽअ॒विषु॑ । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । नि: । नु॒दा॒म॒सि॒ । य: । अ॒ग्नि: । ज॒न॒ऽयोप॑न: ॥२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो अश्वेषु वीरेषु यो नो गोष्वजाविषु। क्रव्यादं निर्णुदामसि यो अग्निर्जनयोपनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । अश्वेषु । वीरेषु । य: । न: । गोषु । अजऽअविषु । क्रव्यऽअदम् । नि: । नुदामसि । य: । अग्नि: । जनऽयोपन: ॥२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(यः) जो अग्नि, अर्थात् अग्नि के समान नाशक यक्ष्मरोग, (नः) हमारे (अश्वेषु) अश्वों में, (वीरेषु) और वीर योद्धाओं में है, (यः) जो (नः) हमारी (गोषु अजाविषु) गौओं-बकरियों-भेड़ो में है, तथा (यः अग्निः) अग्नि सदृश यक्ष्मरोग (जनयोपनः) जनों को व्याकुल कर देता है उस (क्रव्यादम्) कच्चे अर्थात् जीवित के मांस के भक्षी यक्ष्म को (निर्णुदामसि) हम निकाल फेंकते हैं।
टिप्पणी -
[अग्नि शब्द द्वारा यक्ष्मरोग अभिप्रेत है। उसे ही क्रव्याद् भी कहा है। योपनः= युप विमोहने। विमोहन= मूढ़ता, कर्तव्याकर्तव्यज्ञान शून्यता, अर्थात् व्याकुलता। मन्त्र में पशुचिकित्सा का भी निर्देश किया है]।