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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 2/ मन्त्र 52
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - पुरस्ताद्विराड्बृहती सूक्तम् - यक्ष्मारोगनाशन सूक्त

    प्रेव॑ पिपतिषति॒ मन॑सा॒ मुहु॒रा व॑र्तते॒ पुनः॑। क्र॒व्याद्यान॒ग्निर॑न्ति॒काद॑नुवि॒द्वान्वि॒ताव॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽइ॑व । पि॒प॒ति॒ष॒ति॒ । मन॑सा । मुहु॑: । आ । व॒र्त॒ते॒ । पुन॑: । क्र॒व्य॒ऽअत् । यान् । अ॒ग्नि: । अ॒न्ति॒कात् । अ॒नु॒ऽवि॒द्वान् । वि॒ऽताव॑ति ॥२.५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेव पिपतिषति मनसा मुहुरा वर्तते पुनः। क्रव्याद्यानग्निरन्तिकादनुविद्वान्वितावति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽइव । पिपतिषति । मनसा । मुहु: । आ । वर्तते । पुन: । क्रव्यऽअत् । यान् । अग्नि: । अन्तिकात् । अनुऽविद्वान् । विऽतावति ॥२.५२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 2; मन्त्र » 52

    भाषार्थ -
    (इव) मानो कुकर्मी व्यक्ति (मनसा) मन द्वारा (प्र) आगे की ओर (पिपतिषति) उड़ना चाहता है, परन्तु (मुहुः) बार-बार (पुनः) फिर (आ वर्त्तते) वापिस लौट आता है, (यान्) जिन्हें कि (क्रव्याद अग्निः) मांसभक्षक अग्नि (विद्वान्) मानों जानता हुआ सा, (अन्तिकात्) उन के समीप होकर, (अनु) निरन्तर (वितावति) वृद्धि या उन्नति से विगत करती रहती है। वितावति= वि +तु (वृद्धौ)

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